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इन्द्रजाल ......(दोहावली)// डॉ० प्राची

आँख मिचौली खेलता, मुझसे मेरा मीत 

अंतरमन के तार पर, गाए मद्धम गीत 

जैसे सूरज में किरण, चन्दन बसे सुगंध 

प्रियतम से है प्रीत का, मधुरिम वह सम्बन्ध  

क्यों अदृश्य में खोजता, मनस सत्य के पाँव 

सहज दृश्य में व्याप्त जब, उसकी निश्छल छाँव 

संवेदन हर गुह्यतम, सहज चित्त को ज्ञप्त

आप्त प्रज्ञ सम्बुद्ध वो, ज्ञानांजन संतृप्त 

प्रीत प्रखरता जाँचती, नित्य नियति की चाल 

मोहन लोभन फाँसते, छद्म इन्द्र के जाल 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by विजय मिश्र on September 30, 2013 at 5:46pm
"क्यों अदृश्य में खोजता, मनस सत्य के पाँव
सहज दृश्य में व्याप्त जब, उसकी निश्छल छाँव |"

- अलौकिक भाव ,भावना और श्रद्धा से भरी एक अर्पित अभिव्यक्ति . साधुवाद प्राचीजी .

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 30, 2013 at 11:54am

आदरणीया मीना पाठक जी 

दोहावली का अनुमोदन कर उत्साहवर्धन करने के लिए हृदय तल से आभार 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 30, 2013 at 11:52am

प्रिय अरुण शर्मा 'अनंत' जी 

दोहा दर दोहा अपनी सहज प्रतिक्रया देने के लिए बहुत बहुत अभार..

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on September 30, 2013 at 11:52am

वाह वाह आदरणीया क्या ही ग़ज़ब की दोहावली रची है आपने

सादर बधाई स्वीकारिये इस सुन्दर रचना पर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 30, 2013 at 11:48am

दोहावली को समय दे कर रसास्वादन करने के लिए आभार आ० जीतेंद्र जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 30, 2013 at 11:47am

परम को समर्पित इस अभिव्यक्ति पर आपकी सराहना मिली 

सादर धन्यवाद आ० विजय जी 

Comment by Meena Pathak on September 30, 2013 at 11:42am

आँख मिचौली खेलता, मुझसे मेरा मीत 

अंतरमन के तार पर, गाए मद्धम गीत ..... अति सुन्दर .. बहुत बहुत बधाई स्वीकारें आ० प्राची जी 

Comment by अरुन 'अनन्त' on September 30, 2013 at 11:27am

आँख मिचौली खेलता, मुझसे मेरा मीत 

अंतरमन के तार पर, गाए मद्धम गीत ..वाह अत्यंत सुन्दर

जैसे सूरज में किरण, चन्दन बसे सुगंध 

प्रियतम से है प्रीत का, मधुरिम वह अनुबंध  ...अय हय हय अत्यंत मनोहारी

क्यों अदृश्य में खोजता, मनस सत्य के पाँव 

सहज दृश्य में व्याप्त जब, उसकी निश्छल छाँव ... सुन्दर सत्य

संवेदन हर गुह्यतम, सहज चित्त को ज्ञप्त

आप्त प्रज्ञ सम्बुद्ध वो, ज्ञानांजन संतृप्त  ... लाजवाब उम्दा

प्रीत प्रखरता जाँचती, नित्य नियति की चाल 

मोहन लोभन फाँसते, छद्म इन्द्र के जाल  ... क्या कहने दीदी बहुत ही उम्दा

आदरणीया प्राची दीदी अत्यंत सुन्दर मनोहारी हृदयस्पर्शी दोहावली प्रस्तुत की है आपने हृदयतल से ढेरों बधाइयाँ स्वीकारें.

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 30, 2013 at 8:49am

क्यों अदृश्य में खोजता, मनस सत्य के पाँव 

सहज दृश्य में व्याप्त जब, उसकी निश्छल छाँव....बहुत सुंदर

संवेदन हर गुह्यतम, सहज चित्त को ज्ञप्त

आप्त प्रज्ञ सम्बुद्ध वो, ज्ञानांजन संतृप्त .......बेहद गहन सोच का चित्रण

अनुपम दोहावली, बधाई स्वीकारें आदरणीया डा. प्राची जी

Comment by vijay nikore on September 30, 2013 at 4:33am

रससिक्त, मनमोहक भावाभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीया।

 

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