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ग़ज़ल - मेरे महबूब कभी मिलने मिलाने आजा ( सलीम रज़ा रीवा )

मेरे  महबूब  कभी  मिलने  मिलाने  आजा !

मेरी   सोई   हुई   तक़दीर  जगाने   आजा !!

तेरी आमद को समझ लूँगा मुक़द्दर अपना !

रूह बनके मेरी   धड़कन मे समाने आजा !!

मैं तेरे  प्यार  की   खुश्बू  से महक जाऊगा !

गुलशने  दिल को मुहब्बत से सजाने आजा !!

 

तेरी    उम्मीद   लिए    बैठे    हैं    ज़माने  से !

कर  के  वादा  जो  गये  थे वो निभाने आजा !!

बिन तेरे सूना है ख़्वाबो का ख़्यालो का महल !

ऐसी    वीरानगी   में   फूल   सजाने    आजा !!

तेरी  हर  एक  अदा  जान  से  प्यारी है मुझे !

तू  हंसाने  न  सही   मुझको  सताने  आजा !!

अब  तड़प दिल की नही और सही जाती है !

प्यार  की कोई  ग़ज़ल मुझको सुनाने आजा !!

मौलिक व अप्रकाशित

9424336644

 

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Comment by SALIM RAZA REWA on October 18, 2013 at 10:42pm

bahan  coontee mukerji ji dili khushi mili...

Comment by SALIM RAZA REWA on October 18, 2013 at 10:41pm

adarndiy ARUN KUMAR JI..bahut bahut shukriya ...ji tankan galti hui hai mafi chahta hun ..par aap sab ache jan kar mat lab samajj rahe hai.

Comment by coontee mukerji on October 18, 2013 at 12:54pm

इस रूमानियत भरी गज़ल को सलाम करती हूँ.

धूप में ठंडी छाँव की तरह,


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on October 18, 2013 at 9:03am

आदरणीय सलीम रजा जी, आपको पढ़कर एक पुरानी गज़ल  रंजिश ही सही.....याद आ गई. कहीं-कहीं पर टंकण त्रुटियाँ खटक रही हैं.

अब तड़प दिल की नही और सही जाती है !

प्यार की कोई ग़ज़ल मुझको सुनाने आजा !!......बहुत खूब....

Comment by SALIM RAZA REWA on October 18, 2013 at 7:52am

vinaus ji aaj tak maine faz sahab ki gazal nahi padhi ,sach to ye hai ki maine faiz sahab ko hi nahi padha   

YE MERA APNA KHYAL HAI  KAI LAKAH GAZAL LIKHI GAI HAI

kisi se kisi kitkra sakti hai koi kya kar sakta hai ..

han vinas ji faiz sahab ki gazal jarur hamare meil me debhejen ....salimraza1975@gmail.com

Comment by वीनस केसरी on October 17, 2013 at 10:11pm

हुज़ूर ग़ज़ल तो बहुत खूब कही है मगर इसकी जमीन के साथ साथ तमाम अशआर सीधे फैज़ साहब के सबसे मशहूर ग़ज़ल से टकरा रहे हैं और आप पर चर्बा करने का इलज़ाम आयद हो सकता है ..
हर शाइर को इससे बचने की कोशिश करनी चाहिए आप एक बार फैज़ साहब की ग़ज़ल से अपनी ग़ज़ल का मिलान कर लें

Comment by SALIM RAZA REWA on October 17, 2013 at 9:19pm

Sushil.Joshi ji aapki muhabbat bhare lahze aur muhabbat ke ras bhar te hain..shukriya

Comment by Sushil.Joshi on October 17, 2013 at 8:52pm

वाह आदरणीय सलीम रज़ा जी.... बहुत ही सुंदर प्रस्तुति है...... अपने प्रियतम को जब कोई इस तरीक़े से बुलाए तो वह क्यों न आए भला...... वाह..... बधाई इस सुंदर रचना हेतु......

दूसरे शेर में टंकण दोष प्रतीत होता है मुझे.....  'तेरी आमद को समझ लुगा मुक़द्दर अपना'... में शायद 'समझ लूँगा' होना चाहिए यद्दपि उर्दू शब्दों का अधिक ज्ञान नहीं है मुझे..... कृपया मेरी भूल सुधारिएगा यदि मेरा कहना गलत हो तो.....

Comment by SALIM RAZA REWA on October 17, 2013 at 8:11pm

adarniy गिरिराज भंडारी ji dili shukriya 

ghazal pasand karne ke liye , apni mohabbat yu hi banaye rakhe 

Comment by SALIM RAZA REWA on October 17, 2013 at 8:10pm

bahan  Sarita Bhatia  ji shkriya

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