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ग़ज़ल - इश्क़ न हो तो ये जहां भी क्या - अभिनव अरुण्

ग़ज़ल – २१२२ १२१२ २२

इश्क़ न हो तो ये जहां भी क्या ,

गुलसितां क्या है कहकशां भी क्या |

पीर पिछले जनम के आशिक़ थे ,

यूँ ख़ुदा होता मेहरबां भी क्या |

औघड़ी फांक ले मसानों की ,

देख फिर ज़ीस्त का गुमां भी क्या |

बेल बूटे खिले हैं खंडर में ,

खूब पुरखों का है निशाँ भी क्या |

ख़ुशबू लोबान की हवा में है ,

ख़त्म हो जायेंगा धुआँ भी क्या |

माँ का आँचल जहां वहीँ जन्नत ,

ये जमीं क्या है आसमाँ  भी क्या |

ख़ूब चर्चा में है वेलेन्टाइन ,

इश्क़ तेरी सजी दुकां भी क्या |

उनकी नज़रें हुईं जिगर के पार ,

तीर को चाहिए कमां भी क्या |

 

मुझको शहरे ग़ज़ल घुमा लायी ,
 ख़ूब उर्दू ज़ुबां ज़ुबां भी क्या |

यूं लगे है ख़ुदा बुलाता है ,
इन मीनारों से है अजां भी क्या |

     - मौलिक और अप्रकशित.

                 - अभिनव अरुण

                    {16122913}

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Comment by Abhinav Arun on December 18, 2013 at 10:26am

शुक्रिया श्री जितेन्द्र जी , स्नेह मिलता रहे !

Comment by Abhinav Arun on December 18, 2013 at 10:26am

आ. डॉ साहिबा आभारी हूँ सादर नमन आपका !

Comment by Abhinav Arun on December 18, 2013 at 10:25am

आपकी सराहना से  लेखन को बल मिला है आदरणीय श्री राजेश मृदु जी 

Comment by Abhinav Arun on December 18, 2013 at 10:25am

बहुत आभार ग़ज़ल के अनुमोदन के लिए श्री तपन जी 

Comment by Tapan Dubey on December 17, 2013 at 5:28pm
बेहतरीन गजल हर शेर तारीफे काबिल। .... आदरणीय बधाई आपको
Comment by राजेश 'मृदु' on December 17, 2013 at 4:32pm

जय हो आदरणीय, आपकी बारंबार जय हो, बहुत ही बढि़या गज़ल कही है, सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 17, 2013 at 4:12pm

बहुत सुन्दर ग़ज़ल आ० अभिनव अरुण जी 

हार्दिक बधाई 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on December 17, 2013 at 8:47am

बहुत सुंदर गजल , दिली दाद कुबूल कीजिये आदरणीय अभिनव अरुण जी

Comment by वीनस केसरी on December 17, 2013 at 3:13am

खूबसूरत ग़ज़ल कही है

ढेरो दाद


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 16, 2013 at 8:53pm

आदरणीय अभिनव अरुणजी बेहतरीन गज़ल है दिली दाद कुबूल करें
इन अशआर के लिये विशेष दाद कुबूल करें

//माँ का आँचल जहां वहीँ जन्नत ,

ये जमीं क्या है आसमाँ  भी क्या |

बेल बूटे खिले हैं खंडर में ,

खूब पुरखों का है निशाँ भी क्या |//

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