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माँ – बाप (क्षणिकाएँ )

(1)

हमारे सपने लेते रहे आकार

बड़े और बड़े

महानगर की इमारतों की तरह

भव्य और विशाल

हमारे सपने

बढ़ते रहे

आगे और आगे..

कभी खुद से

कभी दूसरों से

आगे बढ़ जाने की चाह में 

माँ – बाप की ज़रूरतें

छोटी होती गईं 

टूट चुके गाँव के मकान के बाद 

दो वक्त की रोटी में सिमट गईं।

 

(2)

 

वे कभी नहीं आए

हमारे सपनों के बीच

मगर जुड़े रहे हमसे

अपनी दुआओं के साथ ।

 

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 20, 2013 at 7:14pm

नादिर भाई

क्या सुन्दर लिखा है आपने  i बहुत बहुत बधाई  i

Comment by AVINASH S BAGDE on December 20, 2013 at 6:48pm

टूट चुके गाँव के मकान के बाद 

दो वक्त की रोटी में सिमट गईं।..afasosnaak!

जुड़े रहे हमसे दुआओं के साथ ।..yakeenan...umda dil ko chhooti khshanikaye... नादिर ख़ान sahab...

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