२१२२ २१२२ २१२२ २१२
रोक लो तूफ़ान चिंगारी भड़क फ़िर जाएँगी
नफ़रती लपटें जमीं से अर्श तक फ़िर जाएँगी
इन दरारों पे जरा आँचल बिछा कर छाँव दो
आंच पाकर बैर की वरना दहक फ़िर जाएँगी
अम्न- ओ-इंसानियत से चूर थी गलियाँ यहाँ
देख वो अपने उसूलों से भटक फ़िर जाएँगी
खाई जाती थी कसम जो दोस्ती के दरमियाँ
उस वफ़ा की पाक़ मीनारें चटक फ़िर जाएँगी
फिर झडेंगे शाखों से पत्ते ख़जां आये बिना
बिजलियाँ जब उन दरख्तों पे कड़क फ़िर जाएँगी
यास में ग़म दर्द की ख़ुर्शीद ढक ता जाएगा
चैन की खामोश दीवारें दरक फ़िर जाएँगी
जल उठेगा ताज सुलगेगा हिमालय का बदन
चिन्दियाँ इतिहास की, रूहों तलक फ़िर जाएँगी
ख़त्म हो गर ‘राज’ इनकी दुश्मनी की फितरतें
ये फ़सुर्दा क्यारियाँ दिल की महक फिर जाएँगी
अर्श=आकाश
ख़जां=पतझड़
ख़ुर्शीद=सूर्य
यास=धुंध
फ़सुर्दा=मुरझाई हुई
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
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Comment
प्रिय मीना पाठक जी आपका तहे दिल से आभार.
जीतेन्द्र गीत जी ग़ज़ल आपको पसंद आई उसके शेर आपको प्रभावित कर सके मेरा लिखना सार्थक हुआ तहे दिल से शुक्रिया आपका
क्या बात है .... बहुत खूब ,, बधाई आप को | सादर
फिर झडेंगे शाखों से पत्ते ख़जां से पहले
बिजलियाँ जब उन दरख्तों पे कड़क जाएँगी............वाह! कमाल का शेर हुआ
यास में फिर दर्द की ख़ुर्शीद ढक जाएगा
चैन की खामोश दीवारें दरक जाएँगी.........विशेष बधाई, इस शेर पर
बहुत सुंदर गजल कही आपने आदरणीया राजेश जी, दिली दाद कुबूल करें. आपके द्वारा दिए शब्दों के अर्थ से हम जैसे पाठकों को बहुत सहायता मिलती है.
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