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किसी मासूम की बेचारगी आवाज़ देती है

किसी मासूम की बेचारगी आवाज़ देती है

मुझे मजबूर होटों की हँसी आवाज़ देती है

 

कोई हंगामा कर डाले न मेरी लफ्ज़े-ख़ामोशी

मेरी बहनों की मुझको बेबसी आवाज़ देती है

 

तुम्हारे वास्ते वो रेत का ज़रिया सही, लेकिन

कभी जाकर सुनो, कैसी नदी आवाज़ देती है

 

मेरे हमराह चलकर ग़म के सहरा में तू क्यों तड़पे

तुझे ऐ ज़िन्दगी, तेरी ख़ुशी आवाज़ देती है

 

मैंने क़िस्मत बना डाली है अपनी बदनसीबी को

मगर, तुमको तुम्हारी ज़िन्दगी आवाज़ देती है

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 19, 2014 at 6:14pm

बड़ी खूबसूरत ग़ज़ल कही है सुशील जी। हर शे’र शानदार है। दिली दाद कुबूल कीजिए।

Comment by Madan Mohan saxena on May 19, 2014 at 4:52pm

सुन्दर ..

Comment by Shyam Narain Verma on May 19, 2014 at 3:55pm
अच्छी प्रस्तुति आदरणीय ,बधाई .........
Comment by Ram Awadh VIshwakarma on May 19, 2014 at 2:55pm

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 19, 2014 at 10:41am

कोई हंगामा कर डाले न मेरी लफ्ज़े-ख़ामोशी

मेरी बहनों की मुझको बेबसी आवाज़ देती है...क्या कशिश है

 

तुम्हारे वास्ते वो रेत का ज़रिया सही, लेकिन

कभी जाकर सुनो, कैसी नदी आवाज़ देती है........गजब की रूमनिय्त भरा ख़याल है

बहुत बहुत बधाई आदरणीय सुनील भाई

Comment by Meena Pathak on May 19, 2014 at 8:09am

बहुत बहुत सुन्दर .. सादर बधाई 

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