“बेटा..! ऐसा मत कर, फेंक दे ये ज़हर की बोतल I ले हमने जमीन के कागज़ पर दस्तख़त कर दिए हैं. जा, अब मर्ज़ी इसे बेच या रख। बस अपनी पत्नी और बच्चों के साथ ख़ुशी से रह । हमारा क्या है बेटा, हम कुछ दिन के मेहमान हैं,जी लेंगे जैसे-तैसे...” माँ रुंधे हुए गले से कहा.
सभी निगाहें बेटे पर केंद्रित थीं जो जहर की बोतल को आँगन में ही फेंक दस्तखत किये हुए कागजों को समेटने में व्यस्त था. लेकिन उसी बोतल को उठाकर अपनी कोठरी में ले जाते बापू पर किसी की भी नज़र नही पडी थी.
जितेन्द्र 'गीत
(मौलिक व् अप्रकाशित)'
Comment
khooob sirji ,,,,,,,,,,,,,,,, waah .........
आदरणीय योगराज जी.
आप जैसे श्रेष्ठ लघुकथा कार की पारखी नजर को नमन. आपकी उपस्थिति से मन को बहुत संतोष मिला, अपना स्नेह व् मार्गदर्शन हमेशा बनाये रखियेगा.
सादर!
आपकी उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया हेतु आपका ह्रदय से आभारी हूँ आदरणीय अखिलेश जी. स्नेह बनाये रखियेगा
सादर!
रचना के मर्म को आपने छुआ, आपका हार्दिक आभार आदरणीया प्रज्ञा जी
सादर!
लघुकथा पर आपकी सराहना हेतु आपका ह्रदय से आभारी हूँ आदरणीय विनय जी
सादर!
आदरणीय शुभ्रांशु जी,
लघुकथाओं पर आपकी प्रतिक्रिया का बड़ी बेसब्री से इन्तजार रहता है. यहाँ लेखक ने अंत में कागज और जहर की बोतल में से, पुत्र द्वारा कीमती कागज़ और पिता द्वारा जहर उठाने का अभिप्राय यह रखा है कि माता-पिता हमेशा अपने बच्चों को अमृत(खुशियाँ) देकर स्वयं जहर(दुःख ) ले लेते है. शायद ऐसा कोई किसी के लिए नहीं कर पाता है.
आपकी उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया हेतु आपका ह्रदय से आभारी हूँ, अपना स्नेह यूहीं बनाये रखियेगा
..सादर!
आपकी सराहना हेतु आपका ह्रदय से आभारी हूँ आदरणीया राजेश दीदी. अपना स्नेह व् आशीर्वाद बनाये रखियेगा
सादर!
अनूठी लघुकथा ....बाप ऐसे ही होते है और बेटे तो....अजीब दृश्य प्रस्तुत किया है आपने....
आदरणीय जितेन्द्र भाई , आज घर की मे स्थितियाँ पैदा हो चुकी है , उन को आपने बहुत खूब सूरती से लघु कथा मे बताया है , और अंत मे एक प्रश्न भी पाठक के दिमाग मे उठा दिया है , शीशी क्यों उठाई गई ? बहुत सुन्दर ! रचना के लिये आपको दिली बधाइयाँ ॥
वाह जीतू i
दिल जीत लिया i बहुत सुन्दर i
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