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घोड़े नहीं रहे --डा० विजय शंकर

घोड़े नहीं रहे , घोड़ों का युग नहीं रहा
मेंढ़क हैं , तरह तरह के मेंढ़क,
हरियाली है उनकीं , हरे हरे से मेंढ़क,
उछलते , कूदते , फांदते , मेंढ़क
न अश्व रहे , न अश्वपुत्र , न ही अश्वपति
न लम्बी दौड़ , न ऊंची कूद ,
न रही कहीं वो गति ,
मीटर दो मीटर की दौड़ें हैं ,
फुट दो फुट ऊंची कूदें हैं ,
आस पास तक गूंज ले
बस ऐसी ही आवाजें हैं ।
उम्मीदों के क्या कहने ,
अरमान वही घोड़ों जैसे ,
नाल हो , जीन हो ,
घोड़े वाली कलगी हो ,
ऊंचाई से क्या होता ,
ऊंचा ही तो बुरा होता है ,
मेंढ़क से तो हर कोई
नीचे उतर के बात करता .
कुछ तो पड़े रहते हैं चरणों में ,
ज़रा भी ऊपर जायेंगें तो , डर है
संपर्क और कृपा से ही चले जायेंगें
मेंढ़क हैं , तालाब की चिंता है
उसके आगे क्या रखा है .
शान देखिये मेंढकों की
नाल पहनाई जा रही है ,
बड़ी बड़ी नाल ,
पैरों से बड़ी बड़ी नाल ,
फुदकना तो दूर ,
नाल पहन कर चल नहीं पा रहे हैं , पर ,
पहने क्यों नहीं , घोड़ों की जगह ली है .
टाप तो वैसे ही होनी चाहिए
पहनेगें जरूर , प्रतिष्ठा भी तो चाहिए .

मौलिक एवं अप्रकाशित.
डा० विजय शंकर

Views: 908

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Comment by Dr. Vijai Shanker on August 1, 2014 at 1:01pm
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय गोपाल नरायन जी ,
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 1, 2014 at 11:08am

आदरणीय विजय जी

प्रारंभ से लेकर अंत तक आपने अन्योक्ति का बड़ा ही  सुन्दर निर्वाह किया है i

आपको इस सुन्दर रचना के लिए बधाई i

Comment by Dr. Vijai Shanker on July 31, 2014 at 11:13pm
बहुत बहुत धन्यवाद , रचना आपको अच्छी लगी , अच्छा लगा . आदरणीय आमोद कुमार जी ,
Comment by Amod Kumar Srivastava on July 31, 2014 at 9:01pm

रचना कहीं खो रही है..... या मुझे कुछ ऐसा लग रहा है ... .....

नाल पहन कर चल नहीं पा रहे हैं , पर ,
पहने क्यों नहीं , घोड़ों की जगह ली है .
टाप तो वैसे ही होनी चाहिए
पहनेगें जरूर , प्रतिष्ठा भी तो चाहिए . 

शानदार ... सादर ... 

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