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“भाभी, अगर कल तक मेरी राखी की पोस्ट आप तक नहीं पँहुची तो परसों मैं आपके यहाँ आ रही हूँ  भैया से कह देना ” कह कर रीना ने फोन रख दिया|

अगले दिन भाभी ने सुबह ११ बजे ही फोन करके कहा, "रीना राखी पहुँच गई है ”

"पर भाभी मैंने तो इस बार राखी पोस्ट ही नहीं की थी !!! "


(मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment by vijay nikore on August 11, 2014 at 7:40pm

रिश्ते को परखने के लिए,किसी को सही जानने के लिए कभी छोटा-सा झूठ भी बोलना पड़ता है ... यह भी तो दुख की बात है न।

ठीक शब्दों में आपकी लघु कथा आज के रिश्तों को बयाँ कर रही है। हार्दिक बधाई, आदरणीया राजेश जी।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 11, 2014 at 5:50pm

जी सही कहते हैं आप  आ० विजय मिश्र जी |

Comment by विजय मिश्र on August 11, 2014 at 5:49pm
जैसे ही इन रिश्तों के अंदर कपट भाव आ जाए , कोमल तत्वों का स्फुरण समाप्त |और जीवन में उबन और खटास का यह छ्लवृति एक कारण बन गया है | आभार

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 11, 2014 at 5:27pm

आ० विजय मिश्र जी,यदि मन साफ़ हो तो नन्द और भौजाई से बड़ा स्नेह प्यार का रिश्ता हो ही नहीं सकता दोनों चाहें तो गहरी दोस्त बन कर मिसाल कायम कर सकती हैं परिवारों में खुशियाँ भर सकती हैं किन्तु इन रिश्तों का आजकल दूसरा ही चेहरा देखने को मिल रहा है,आपको लघु कथा पसंद आई आपका दिल से आभार |  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 11, 2014 at 5:23pm

जी आ० सौरभ जी,सही कहा :-))))) .

Comment by विजय मिश्र on August 11, 2014 at 5:10pm
राजेशजी , हमारे यहाँ नन्द-भौजाई के सम्बन्ध में चिरौरी और चुटीली भाषा का आदान-प्रदान सहज भाव है और आप इसे इस कथा में उतनी ही पारम्परिक रूप में समप्रेषित किया |साधुवाद

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 11, 2014 at 2:36pm

//हम लेखक लोग अपने ही नहीं अपने आस पास वालों के दुःख दर्द को भी अपनी रचनाओं के माध्यम से जीते हैं, हैं न ?? //

:-))) .. परहित सरिस धरम नहीं भाई..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 11, 2014 at 11:49am

प्रिय गीतिका,सच कहा रिश्ते मेंटनेंस चाहते हैं दोनों ही छोर  से ...किन्तु इससे उलट हो रहा है न्यूक्लीयर फैमिली बस तू मैं और हमारे बच्चे तक ही सीमित होकर रह गई हैं और किसी का आना जाना सिर्फ और सिर्फ दखल अन्दाजी लगता है और त्यौहार ओपचारिकता भर ...आपको लघुकथा के मर्म ने व्यथित किया होता भी है हम लेखक लोग अपने ही नहीं अपने आस पास वालों के दुःख दर्द को भी अपनी रचनाओं के माध्यम से जीते हैं, हैं न ?? हार्दिक आभार आपका| 

Comment by वेदिका on August 11, 2014 at 11:15am
रिश्ते कितना मेंटिनेंस मांगते है, एक संवाद और सम्मान। वर्ष के वर्ष आने वाले त्यौहार पर भी यदि यही प्रतिउत्तर रह जाता है तो मन करता है कि अविवाहित रहते हुए ही राखियाँ संजो ली जाएँ।
आपकी कथा उस दूसरे पहलू पर भी प्रकाश डालती है जिससे बचा जा रहा है। क्योंकि लगभग मृत हो चुके रिश्ते को ढोना भी संभव नही।
सावन के रिश्तों को तार तार करती लघुकथा पर आपको हार्दिक बधाई पहुंचे आदरणीया!
सादर!!

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 11, 2014 at 10:12am

आ० सौरभ जी,लघुकथा पर आपकी प्रतिक्रिया एक ओर मेरी कलम को ऊर्जस्वी बना रही है तो दूसरी और मुझे अपनी इस लघुकथा के लिए आश्वस्त भी कर रही है सार्थकता प्रदान कर रही है आपका हृदय तल से आभार | 

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