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आग लगाते वो कुछ इस तरह जो धुआँ तक नहीं होता(ग़ज़ल 'राज')

२११२ २१२२  १२२१  २२१२ २२

लोग हुनरमंद कितने किसी को गुमाँ तक नहीं होता

आग लगाते वो कुछ इस तरह जो धुआँ तक नहीं होता

 

जह्र फैलाते हुए उम्र गुजरी भले  बाद में उनकी

मैय्यत उठाने कोई यारों का कारवाँ तक नहीं होता

 

आज यहाँ की बदल गई आबो हवा देखिये कितनी

वृद्ध की माफ़िक झुका वो शजर जो जवाँ तक नहीं होता

 

मूक हैं लाचार हैं जानवर हैं यही जिंदगी इनकी  

ढो रहे हैं  बोझ पर दर्द इनका बयाँ तक नहीं होता

 

 ख़्वाब सजाते सदा आसमां पर महल वो बनायेंगे

 दिल की जमीं पर मुहब्बत भरा आशियाँ तक नहीं होता

 -------------------------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment by rajesh kumari on December 1, 2014 at 11:18am

आ० डॉ० गोपाल नारायण जी,आपकी प्रतिक्रिया से अभिभूत हूँ आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ तहे दिल से आभार आपका |  

Comment by Dr. Vijai Shanker on December 1, 2014 at 11:12am
सारगर्भित प्रस्तुति। बधाई आदरणीय राजेश कुमारी जी , सादर।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 1, 2014 at 11:07am

लोग हुनरमंद कितने किसी को गुमाँ तक नहीं होता

आग लगाते वो कुछ इस तरह जो धुआँ तक नहीं हो

आगाज अगर ऐसा है तो अंजाम खुदा जाने I बेहतरीन i सुभान अल्लाह  i

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