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ग़ज़ल -- हर तरफ है ज़ह्र फैला , आज शंकर कौन होगा ( गिरिराज भंडारी )

2122     2122      2122      2122  

कौन सागर को मथेगा, और सागर कौन होगा

हर तरफ है ज़ह्र फैला , आज शंकर कौन होगा

 

कौन पर्वत से लिपट के पूँछ-मुँह बांटे किसी को

सब की बरक़त चाहता हो, ऐसा विषधर कौन होगा

 

चिलमनों से झाँक के सारे नज़ारे देखते हैं

आज सड़कों पे उतरने घर से बाहर कौन होगा

 

आज ज़िंदाँ की सलाखें सोचतीं हैं देख कर ये

सर परस्ती सब को हासिल, आज अंदर कौन होगा

 

ये ज़मीं तो चाहती है सब बराबर ही रहें पर

हैं अना के जंग सारे , अब सिकंदर कौन होगा

 

सर्प कोई रोज मेरी सभ्यता को डस रहा है

सोचता हूँ आज लिपटेगा वो अजगर कौन होगा

 

धुंध , आंधी और तूफ़ाँ , उसपे हर सू है अँधेरा

पर जलाता है दिया जो शख़्स अक्सर , कौन होगा ?

 

झाँकता हूँ ख़ुद के अन्दर तो मेरा दिल बोलता है

क्यूँ ग़ज़ल कहता है भाई , तुझसे बदतर कौन होगा

************************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on February 16, 2015 at 10:23pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी,आदाब,क्या ख़ूब ग़ज़ल कही है जनाब,ग़ज़ल का हक़ अदा कर दिया,कोई एक शैर लिखकर मैं दूसरे अशआर की तौहीन नहीं करना चाहता ,ग़ज़ल का हर शैर क़ीमती है,मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं |
Comment by Hari Prakash Dubey on February 16, 2015 at 7:10pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी सर, बहुत खूब ,

//कौन पर्वत से लिपट के पूँछ-मुँह बांटे किसी को

सब की बरक़त चाहता हो, ऐसा विषधर कौन होगा// .....एक -एक शेर ही कमाल का है ,हार्दिक बधाई आपको इस रचना पर ! सादर

Comment by maharshi tripathi on February 16, 2015 at 4:53pm

बहुत बढ़िया आ. गिरिराज सर .....बधाई हो |

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 16, 2015 at 12:01pm
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, रचना तो बहुत सही एवं सामयिक है, प्रश्न बहुत गंभीर उठाया है आपने , विष को अलग करने सामने आएगा कौन?
इस गंभीर रचना हेतु बधाई, सादर।

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