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॥ पछतावा ॥ ॥ अतुकांत ॥ ( गिरिराज भंडारी )

॥ पछतावा ॥ ॥ अतुकांत ॥

कहने से नहीं

समझाने से नहीं

कोई अगर गंदगी को चख के ही मानने की ज़िद करे

कौन रोक सकता है

बातें

कर्तव्यों को छोड़

केवल अधिकारों तक पहुँच जाये तब

 

ज़हर धीमा हो अगर

अमृत तो नहीं कह सकते न

 

संस्कारों की भूमि में

रिश्ते दिनों से मानयें जायें

ये दिन , वो दिन

अफसोस होता है

 

पता नहीं क्यों

रोज़ रोते हुये देखता हूँ मैं सपने में

राधा-कृष्ण-मीरा को , सत्यवान-सावित्री को  

कभी कभी लैला- मजनू , शीरी- फरहाद को भी

 

ऐसा न हो कि ये सारे दिन

रातों में बदल जायें

बदल भी रहे हैं कुछ के

तब आँख खुले

बहुत देर हो जाने के बाद

 

क्योंकि,

जब समय समझाता है, तब  

हाथ आता है केवल और केवल

पछतावा ॥

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 16, 2015 at 10:07am

आदरणीय मोहन भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 16, 2015 at 10:06am

आदरणीय अजय भाई , सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on February 16, 2015 at 6:49am

विचारणीय भाव लिये ...सुंदर रचना 

संस्कारों की भूमि में

रिश्ते दिनों से मानयें जायें...

Comment by ajay sharma on February 15, 2015 at 10:47pm

क्योंकि,

जब समय समझाता है, तब  

हाथ आता है केवल और केवल

पछतावा ॥  kya baat kahi sir ....100% 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 15, 2015 at 8:49pm

आदरणीय जितेन्द्र भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 15, 2015 at 8:48pm

आदरणीय बागी भाई जी , आपके अनुमोदन ने रचना का मान बढ़ा दिया । हौसला अफज़ाई का आपक तहे दिल से शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 15, 2015 at 8:47pm

आदरणीय हरि प्रकाश भाई , आपको रचना कुछ संदेश दे  सकी तो रचना सफल हुई । सराहना के लिये दिली शुक्रिया ॥

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 15, 2015 at 6:42pm

कर्तव्यों को छोड़

केवल अधिकारों तक पहुँच जाये तब......सच! यह सब आसान जो होता है. शायद समझदार ही अपनाते हैं 

बहुत-बहुत बधाई इस गूढ़ रचना पर, आदरणीय गिरिराज जी


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 15, 2015 at 3:12pm

//ज़हर धीमा हो अगर

अमृत तो नहीं कह सकते न//

//

क्योंकि,

जब समय समझाता है, तब  

हाथ आता है केवल और केवल

पछतावा ॥//

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, इन उत्कृष्ट भावों से सुसज्जित इस अतुकांत रचना पर बधाई, सुन्दर प्रस्तुति हुई है.

Comment by Hari Prakash Dubey on February 15, 2015 at 11:01am

आदरणीय गिरिराज सर ये गज़ब का सन्देश मिला

//क्योंकि,

जब समय समझाता है, तब  

हाथ आता है केवल और केवल

पछतावा ॥......सुन्दर रचना पर हार्दिक बधाई आपको !

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