2122 2122 2122 2122
कौन सागर को मथेगा, और सागर कौन होगा
हर तरफ है ज़ह्र फैला , आज शंकर कौन होगा
कौन पर्वत से लिपट के पूँछ-मुँह बांटे किसी को
सब की बरक़त चाहता हो, ऐसा विषधर कौन होगा
चिलमनों से झाँक के सारे नज़ारे देखते हैं
आज सड़कों पे उतरने घर से बाहर कौन होगा
आज ज़िंदाँ की सलाखें सोचतीं हैं देख कर ये
सर परस्ती सब को हासिल, आज अंदर कौन होगा
ये ज़मीं तो चाहती है सब बराबर ही रहें पर
हैं अना के जंग सारे , अब सिकंदर कौन होगा
सर्प कोई रोज मेरी सभ्यता को डस रहा है
सोचता हूँ आज लिपटेगा वो अजगर कौन होगा
धुंध , आंधी और तूफ़ाँ , उसपे हर सू है अँधेरा
पर जलाता है दिया जो शख़्स अक्सर , कौन होगा ?
झाँकता हूँ ख़ुद के अन्दर तो मेरा दिल बोलता है
क्यूँ ग़ज़ल कहता है भाई , तुझसे बदतर कौन होगा
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीया राजेश जी , हौसला अफज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥
आदरणीय सोमेश भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभार ॥
आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार ॥
आदारणीय , परि एम श्लोक भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ॥
आज के परिवेश में बहुत से गंभीर प्रश्नों को सम्मुख रखती शानदार ग़ज़ल ,सभी शेर उम्दा हैं बहुत बहुत दाद कबूलें आ० गिरिराज जी.
सागर मंथन के बहाने आपने कितनी सुन्दरता से विचार मंथन कर दिया |बधाई इस सुंदर प्रस्तुति पर आदरणीय |
चिलमनों से झाँक के सारे नज़ारे देखते हैं
आज सड़कों पे उतरने घर से बाहर कौन होगा
बहुत खूब ... आद० भाई गिरिराज जी , सम्पूर्ण ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई l
आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , आपसे सराहना पाके गज़ल मुकम्मल हो गई । आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥
आदरणीय जीतेन्द्र भाई , गज़ल की तरीफ कर हौसला अफजाई करने का शुक्रिया ॥
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