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कौन सा साहित्य रचते हो (1)--डॉo विजय शंकर

क्या करते हो,
कौन सा साहित्य रचते हो,
क्यों रचते हो ,
किसके लिए रचते हो ?
स्वान्तः सुखाय ,
कोई पढ़ता है ,
ऐसा लिख देते हो ,
अर्थ ढूंढना पड़ता है ,
जो है ही नहीं वो
निकालना पड़ता है ,
गाय है , घास है,
गाय घास खा चुकी ,
गाय जा चुकी ,
अब कुछ नहीं ,
सब अदृश्य है, पर है ,
समझ से परे है, पर है ,
क्योंकि लिखा है तुमने ,
जिनको दिख जाए , चक्षुवान।
बाकी ,
बाकी के लिए कहाँ लिखते हो तुम ,
तुम तो अपने लिए लिखते हो,
और कहते हो साहित्य दर्पण होता है,
तुम जो गढ़ते हो वो कितना धुंधला दर्पण है ,
धुंधला नहीं , वैज्ञानिक है, दिखाता कुछ है,
बताता कुछ है, होता बिलकुल ही कुछ और है।
अलग तरह का लिखते हो, लिख कर कुछ अलग दिखते हो,
जिनके लिए लिखते हो , उनसे ही अलग दिखते हो,
अलग दिखने के लिए लिखते हो ,
इसीलिये तो साहित्य से नहीं जुड़ते हो ,
जिनके लिए लिखते हो उनसे नहीं जुड़ते हो,
गज़ब है, फिर क्यों लिखते हो,
क्या , दोज अनहर्ड आर स्वीटर ,
तो कुछ मत कहो , कुछ मत लिखो ,
सब अनहर्ड रहने दो, स्वीट , स्वीट , स्वीटर ,
लोगों को बुनने , बनाने , सजाने दो ,
अपने अपने स्वीट , स्वीट , स्वीटर ||

मौलिक एवं अप्रकाशित.
डा० विजय शंकर

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Comment

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Comment by Usha Choudhary Sawhney on February 22, 2015 at 9:22pm

आदरणीय विजय शंकर जी,

तुम तो अपने लिए लिखते हो,
और कहते हो साहित्य दर्पण होता है,
तुम जो गढ़ते हो वो कितना धुंधला दर्पण है ,
धुंधला नहीं , वैज्ञानिक है, दिखाता कुछ है,
बताता कुछ है, होता बिलकुल ही कुछ और है।
अलग तरह का लिखते हो, लिख कर कुछ अलग दिखते हो,
जिनके लिए लिखते हो , उनसे ही अलग दिखते हो,

बड़ी ही शालीनता से आपने प्रत्यक्ष व् परोक्ष व्यक्तित्व को दर्शा दिया। बहुत सुन्दर सर

Comment by कंवर करतार on February 22, 2015 at 8:29pm

डॉ.विजय भाई,साधारण सपाट पंक्तियों में खूबसूरत ब्यंग बाण है, कोटिश बधाई I

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 22, 2015 at 6:36pm

आ० विजय सर i

आपकी कविता ने सौरभ जी की निम्न कविता  की याद ताजा कर दी  i

आप कविता लिखते हैं ? .. कौन बोला लिखने को..?
शब्द पीट-पीट के अलाय-बलाय करने को ?
मारे दिमाग़ खराब किये हैं ?

वास्तव में आज के साहित्य की यह सबसे गंभीर समस्या है  i आ० सौरभ जी ने अपनी टीप में विस्तार से अपनी बात कही है जो ध्यानव्य ही नहीं मननीय भी  है i सादर i

Comment by maharshi tripathi on February 22, 2015 at 6:05pm

आ. विजयशंकर जी ,,आपकी कविता पर आपको बधाई,काफी गहराई  है इस कविता में ,शायद  इसे पढ़ कर निःस्वार्थ भाव वाला कवी जाग जाये |


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 22, 2015 at 5:19pm

इस रचना में जिन तरह की कविताओं को इंगित किया गया है, इन्हीं तरह की कविताओं को एक विशेष वर्ग द्वारा अमूर्त कविताओं की श्रेणी का कहा गया. लेकिन कहते हैं न 'अति सर्वत्र वर्जयेत'. ऐसी कविताओं की अति हुई तो आम पाठक साहित्य से बिदकने लगा. जब पानी सिर से गुजरने लगा तो साहित्य-समाज को गीति-काव्य की पुनः आवश्यकता हुई. चूँकि गीत पहले ही वायवीय भावनाओं और रुमानी दुनिया की गलियों में भटके हुए थे. संवेदनशील पाठक और रचनाकारों को अभिव्यक्ति के नये माध्यम की आवश्यकता महसूस हुई. यही आवश्यकता कारण बनी नये तेवर के ग़ज़लों की और नवगीतों की. गेयता का आग्रह और कथ्य का सान्द्र संप्रेषण जहाँ ग़ज़लों में दिखने लगा वहीं नवगीत विन्यास और स्पष्टता से विन्दुवत भाव उकेरने लगे.

आदरणीय विजय शंकरजी, आपकी चिन्ता समीचीन है. इसी तरह की चिन्ता ने कविताओं के लिए जीवनी-शक्ति का काम किया है. कवितायें और गीत अपने नये रूप और मानकों में जी उठे हैं. साहित्य पुनः सरस और साहसी हो गया है.
इस अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक धन्यवाद और अनेकानेक बधाइयाँ.
सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 22, 2015 at 4:23pm

इस कविता पर पुनः आता हूँ 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 22, 2015 at 4:23pm

आदरणीय डॉ विजय शंकर सर, आपकी यह कविता गज़ब का व्यंग्य है, सीधी सपाट बाते. इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई निवेदित है सर.

कृपया ध्यान दे...

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