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अब हाले दिल ये उनको सुनाना ही पड़ेगा
लगता है अपने ओंठ हिलाना ही पड़ेगा
छत पे खड़े हैं आज वो ऊंचे मकान की
इस जिस्म में अब पंख लगाना ही पड़ेगा
लौटे हैं कितने रिंद उन्हें मान के पत्थर
जल्वा- ग़ज़ल का उनको दिखाना ही पड़ेगा
छुप छुप के देखें आह भरें होगा न हमसे
नजरों के तीखे तीर चलाना ही पड़ेगा
ग़ज़लों पे रखिये आप यकी आज भी अपनी
जलता हुआ दिल ले उन्हें आना ही पड़ेगा
जिस दौर में ओंठो पे यकी होता नहीं है
उसमे जिगर भी चीर दिखाना ही पड़ेगा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय आशुतोष भाई , अच्छी गज़ल हुई है , आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥
जिस दौर में ओंठो पे यकी होता नहीं है
उसमे जिगर भी चीर दिखाना ही पड़ेगा --- बहुत सुन्दर !! बधाई आदरणीय ॥
आदरणीय विजय सर ...आप के उत्साहित करने वाले शब्दों से मुझे रचना धर्मिता की नूतन उर्जा मिलती है ..आपका स्नेह यूं ही मिलता रहे इस कामना के साथ सादर
आदरणीय हरी प्रकाश जी ..आपका स्नेह बस यूं ही सदैव मिलता रहे इसी कामना के साथ सादर
आदरणीय मिथिलेश जी ...उत्साहवर्धन के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद ..सादर
आदरणीय महर्षि जी ..रचना पर आपकी उत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद सादर
आदरणीय गोपाल सर ..इस गलती पर मेरा ध्यान भी गया था लेकिन ठीक करना भूल गया ..आपके मार्गदर्शन और स्नेह के लिए हार्दिक धन्यवाद सादर
आदरणीय श्याम नारायण जी ..रचना आपको पसंद आयी इससे मुझे नूतन उर्जा मिलती है हादिक धन्यवाद के साथ सादर
आदरणीय कृष्णा जी ..रचना पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद सादर
आदरणीय डॉक्टर आशुतोष मिश्रा जी सुन्दर ग़ज़ल
छत पे खड़े हैं आज वो ऊंचे मकान की
इस जिस्म में अब पंख लगाना ही पड़ेगा....सुन्दर , बधाई आपको !
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