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ग़ज़ल : इक दिन बिकने लग जाएँगे बादल-वादल सब

इक दिन बिकने लग जाएँगे बादल-वादल सब

दरिया-वरिया, पर्वत-सर्वत, जंगल-वंगल सब

 

पूँजी के नौकर भर हैं ये होटल-वोटल सब

फ़ैशन-वैशन, फ़िल्में-विल्में, चैनल-वैनल सब

 

महलों की चमचागीरी में जुटे रहें हरदम

डीयम-वीयम, यसपी-वसपी, जनरल-वनरल सब

 

समय हमारा खाकर मोटे होते जाएँगे

ब्लॉगर-व्लॉगर, याहू-वाहू, गूगल-वूगल सब

 

कंकरीट का राक्षस धीरे धीरे खाएगा

बंजर-वंजर, पोखर-वोखर, दलदल-वलदल सब

 

जो न बिकेंगे पूँजी के हाथों मिट जाएँगे

पाकड़-वाकड़, बरगद-वरगद, पीपल-वीपल सब

 

आज अगर धरती दे दोगे कल वो माँगेंगे

अम्बर-वम्बर, सूरज-वूरज, मंगल-वंगल सब

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(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 14, 2015 at 5:06pm

बहुत बढ़िया, आनंद आ गया, बधाई आ. धर्मेन्द्र जी.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 14, 2015 at 7:49am
आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी बहुत ही उम्दा ग़ज़ल हुई। शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाये।
Comment by वीनस केसरी on April 14, 2015 at 4:44am

जिंदाबाद भाई
दिल खुश कर दिया ...


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 13, 2015 at 10:43pm

पूँजी के नौकर भर हैं ये होटल-वोटल सब

फ़ैशन-वैशन, फ़िल्में-विल्में, चैनल-वैनल सब---बहुत खूब 

बहुत अच्छी लगी ये ग़ज़ल ..हार्दिक बधाई आ० धर्मेन्द्र जी |

 

Comment by umesh katara on April 13, 2015 at 7:20pm

अच्छी गजल कही है श्रीमान वाह बधाई 

Comment by Samar kabeer on April 13, 2015 at 10:46am
जनाब धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी,आदाब,सफ़ल प्रयास हुवा है,जदीद लबो लहजे में अच्छी ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं |

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 13, 2015 at 8:49am

क्या बात है !! आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , आ. राहत भाई की ज़मीन पर मंच मे एक और बेहतरीन गज़ल पढ़वाई आपने ॥ आपको दिले बधाई ॥

 

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 12, 2015 at 5:04pm
आज अगर धरती दे दोगे कल वो माँगेंगे
अम्बर-वम्बर, सूरज-वूरज, मंगल-वंगल सब
बहुत ही सशक्त एवं सुन्दर चित्रण, बधाई, आदरणीय धर्मेन्द्र कुमार जी, सादर।

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