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गर जाग गया होता अंतस जो अजानों से - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

221  1222  221  1222
******************
कब  मोह  दिखाती  है  सरकार  किसानों से
मतलब  तो उसे  है बस  दो  चार दुकानों से
****
रिश्तों  की  कहाँ कीमत  वो लोग  समझते हैं
है   प्यार  जिन्हें  केवल  दालान  मकानों  से
****
वो  मान   इसे  लेंगे  अपमान   बुजुर्गी  का
तकरार   यहाँ  करना   बेकार   सयानों  से
****
कदमों  को मिला पाए कब साथ नयों का हम
कब  यार  निभाई  है  तुमने  भी  पुरानों  से
****
उस  रोज  यहाँ होगा सतयुग सा  नजारा भी
जिस रोज  चलाओगे  शासन  को विधानों से
****
मत शोर  मचाओ  बस दुश्मन से निपटने का
बाहर  भी निकालो  अब कुछ तीर कमानों से
****
क्यों यार  बहाते वो  हर घर  में नदी  खूँ की
गर  जाग  गया  होता अंतस जो अजानों से
****
है  खूब  समझती  वो  खामोश  भले  ही है
जनता  न   बहलेगी  हर  बार   बहानों  से
****
गर बात है कहनी कुछ काबू में जुबाँ को रख
अपने  भी  पराए  बन  जाते  हैं  जुबानों  से
****

मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

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Comment

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Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 22, 2015 at 9:15am

मत शोर  मचाओ  बस दुश्मन से निपटने का
बाहर  भी निकालो  अब कुछ तीर कमानों से          बहुत खूब सर!

है  खूब  समझती  वो  खामोश  भले  ही है
जनता  न   बहलेगी  हर  बार   बहानों  से            सुन्दर!

गर बात है कहनी कुछ काबू में जुबाँ को रख
अपने  भी  पराए  बन  जाते  हैं  जुबानों  से       अहा क्या कहने!

सुन्दर गज़ल पर ढेरों दाद और मुबारकबाद आ० धामी सरजी!

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on April 22, 2015 at 7:05am

अपने  भी  पराए  बन  जाते  हैं  जुबानों  से...बहुत ख़ूब जनाब ....आदरणीय Laxman Dhami जी..बधाई 

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 22, 2015 at 6:18am
बहुत सुन्दर, आदरणीय लक्षमण धामी जी , सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 21, 2015 at 11:03pm

वाह वाह बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल हुई है दिल से दाद हाज़िर है.

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 21, 2015 at 1:17pm

बहुत सटीक तंज़ करती हुई ग़ज़ल पेश की है ..बहुत बहुत बधाई 

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