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नगर भी गाँव जैसा ही मुहब्बत का घराना हो
सभी के रोज अधरों पर खुशी का ही तराना हो
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बिछा लेना कहीं भी जाल जब चाहे निषादों सा
मगर जीवन में नफरत ही तुम्हारा बस निशाना हो
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है भोलापन बहुत अच्छा मगर छल भी समझ पाए
रचो जग तुम जहाँ बचपन भी इतना तो सयाना हो
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खुशी हो बाँटनी जब भी न सोचो गैर अपनों की
मगर सौ बार तुम सोचो किसी का दिल दुखाना हो
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नई तकनीक के बल पर बदलना सभ्यता लेकिन
हमेशा ध्यान रखना तुम हर इक रिश्ता पुराना हो
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रहे या मत रहे दौलत न इससे आँक खुद को तू
अमिट रिश्तों का झोली में तेरे बस इक खजाना हो
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न मन में लालसा रख तू ‘सिकंदर सा ये जग जीतूँ’
मगर गौतम के जैसा ही तुम्हारा यह जमाना हो
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है रावण नाम तेरा गर चरित को राम जैसा कर
सदा मकशद किसी की लाज को तेरा बचाना हो
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लिखा था जब सफर किस्मत में फिर कैसे ठहर जाता
भले ही दिल किसी का फिर ‘मुसाफिर’ को ठिकाना हो
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मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’
Comment
अच्छे अश’आर हुए हैं आ. धामी जी, दाद कुबूलें
आ० भाई गिरिराज जी गजल पर उपस्थिति से मान बढ़ने के लिए हार्दिक धन्यवाद .साथ ही आपकी पारखी नज़र को कोटि कोटि सलाम . दरअसल मतले की तरफ तो रो में बहते हुए ध्यान ही नहीं गया .इस और ध्यान दिलाने के लिए आभार . इसे शीघ्र परमशानुसार सुधार लूँगा . कृपा बनाये रहें .
ग़ज़ल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आदरणीय मिथिलेश भाई , भाई विजय जी, भाई कृष्णा मिश्रा जी , भाई गोपाल नारायण जी , भाई हरी प्रकाश जी , और भाई समर कबीर जी बहुत बहुत आभार . आशा है स्नेह बनाये रक्खेंगे .
आदरणीय गिरिराज सर, कमाल की नज़र है आपकी ..... इधर तो ध्यान ही नहीं गया था.
आदरणीय लक्ष्मण भाई , गज़ल अच्छी हुई है , पर गज़ल के बहुत से अश आर मे काफिया दोषपूर्ण है --
मतले में आपने घराना , तराना ले कर काफिया अ राना तय किया है , जो बाक़ी के अश आर में नही निभा पाये हैं । बाक़ी मे आप , आना काफिया निभा रहे हैं , सुधार लीजियेगा ॥
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, इस मंच की सुन्दर ग़ज़लों में एक और सुन्दर प्रस्तुति , बहुत बधाई आपको ! सादर
धामी जी
बहुत उम्दा . क्या बात है .सादर .
है भोलापन बहुत अच्छा मगर छल भी समझ पाए
रचो जग तुम जहाँ बचपन भी इतना तो सयाना हो
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खुशी हो बाँटनी जब भी न सोचो गैर अपनों की
मगर सौ बार तुम सोचो किसी का दिल दुखाना हो
ये दो शेर बहुत पसंद आये! सुन्दर गजल पर ढेरों बधाईयां आदरणीय!
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