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है रावण नाम तेरा गर चरित को राम जैसा कर -लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’

1222 1222 1222 1222
*************************
नगर  भी  गाँव  जैसा  ही  मुहब्बत का  घराना हो
सभी के रोज  अधरों  पर  खुशी  का  ही  तराना हो
*****
बिछा  लेना  कहीं  भी   जाल   जब  चाहे  निषादों सा
मगर  जीवन  में  नफरत ही तुम्हारा बस निशाना हो
*****
है  भोलापन  बहुत अच्छा  मगर छल भी समझ पाए
रचो जग  तुम जहाँ बचपन  भी  इतना  तो सयाना हो
*****
खुशी हो  बाँटनी  जब भी  न  सोचो  गैर  अपनों की
मगर सौ बार तुम सोचो  किसी का दिल दुखाना हो
 *****
नई तकनीक  के बल पर  बदलना  सभ्यता लेकिन
हमेशा ध्यान  रखना  तुम  हर इक रिश्ता पुराना हो
*****
रहे या मत रहे  दौलत  न  इससे  आँक खुद को तू
अमिट रिश्तों का झोली में तेरे बस इक खजाना हो

*****
न मन में लालसा रख तू ‘सिकंदर सा ये जग जीतूँ’
मगर गौतम  के  जैसा  ही तुम्हारा  यह  जमाना हो
*****
है रावण  नाम  तेरा गर चरित को राम जैसा कर
सदा मकशद किसी की लाज को तेरा   बचाना हो
*****
लिखा  था जब सफर किस्मत में फिर कैसे ठहर जाता
भले ही दिल किसी का फिर ‘मुसाफिर’ को ठिकाना हो
*****

मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’

Views: 807

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 7, 2015 at 9:50am

अच्छे अश’आर हुए हैं आ. धामी जी, दाद कुबूलें

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 6, 2015 at 10:36am

आ० भाई गिरिराज जी गजल पर उपस्थिति से मान बढ़ने के लिए हार्दिक धन्यवाद .साथ ही आपकी पारखी नज़र को कोटि कोटि सलाम . दरअसल मतले की तरफ तो रो में बहते हुए ध्यान ही नहीं गया .इस और ध्यान दिलाने के लिए आभार . इसे शीघ्र परमशानुसार सुधार लूँगा . कृपा बनाये रहें .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 6, 2015 at 10:30am

ग़ज़ल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आदरणीय मिथिलेश भाई , भाई विजय जी, भाई कृष्णा मिश्रा जी , भाई गोपाल नारायण जी , भाई हरी प्रकाश जी , और भाई समर कबीर जी बहुत बहुत आभार . आशा है स्नेह बनाये रक्खेंगे .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 5, 2015 at 11:48pm

आदरणीय गिरिराज सर, कमाल की नज़र है आपकी ..... इधर तो ध्यान ही नहीं गया था.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 5, 2015 at 11:37pm

आदरणीय लक्ष्मण भाई , गज़ल अच्छी हुई है , पर गज़ल के बहुत से अश आर मे काफिया दोषपूर्ण  है  --

मतले में आपने  घराना , तराना  ले कर काफिया  अ राना तय किया है , जो बाक़ी के अश आर में नही निभा पाये हैं । बाक़ी मे आप , आना काफिया निभा रहे हैं , सुधार लीजियेगा ॥

Comment by Samar kabeer on April 5, 2015 at 11:13pm
जनाब लक्ष्मण धामी "मुसाफिर" जी,आदाब,वाह वाह वाह,क्या ही अच्छे जज़बात से भरपूर अशआर निकाले हैं आपने,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं |
Comment by Hari Prakash Dubey on April 5, 2015 at 9:31pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, इस मंच की सुन्दर ग़ज़लों में एक और सुन्दर प्रस्तुति , बहुत बधाई आपको ! सादर 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 5, 2015 at 8:59pm

धामी जी

बहुत उम्दा . क्या बात है .सादर .

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 5, 2015 at 7:15pm

है  भोलापन  बहुत अच्छा  मगर छल भी समझ पाए
रचो जग  तुम जहाँ बचपन  भी  इतना  तो सयाना हो
*****
खुशी हो  बाँटनी  जब भी  न  सोचो  गैर  अपनों की
मगर सौ बार तुम सोचो  किसी का दिल दुखाना हो

ये दो शेर बहुत  पसंद आये! सुन्दर गजल पर ढेरों बधाईयां आदरणीय!

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 5, 2015 at 6:27pm
लिखा था जब सफर किस्मत में फिर कैसे ठहर जाता
भले ही दिल किसी का फिर ‘मुसाफिर’ को ठिकाना हो
बहुत खूब, बधाई। आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, सादर

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