221 2121 1221 212 ( आ. दुष्यंत कुमार की ज़मीन पर )
( अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नही रही )
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जब से किसी के कोई भी चाहत नहीं रही
तब से किसी से कोई शिकायत नहीं रही
फिर जोश कह रहा है कि टकरा जा संग से
पर होश ये कहे है , वो ताकत नहीं रही
मेरी ही कोशिशों में कमी कुछ तो थी ज़रूर
मै क्यूँ कहूँ कि वो मेरी क़िस्मत नहीं रही
बाती के साथ तेल लिये घूमता हूँ, पर
जलने की अब दियों में वो आदत नहीं रही
ग़ुरबत के पाँव घर पे मेरे जब से गड़ गये
जो खेलती थी घर में मुहब्बत नहीं रही
असबाबे ज़िन्दगी तो बहुत आस पास हैं
क्यूँ मेरी ज़िन्दगी में वो लज़्ज़त नहीं रही
हमने खुशी बनाई है अश्क़ों को बीन कर
सच में खुशी की हम पे इनायत नहीं रही
रोना नहीं, कि दिल न पिघल जाये, मोम है
पत्थर से दो घड़ी मेरी सुहबत नहीं रही
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय आशुतोष भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ।
आदरणीय गिरिराज भाईसाब ..दुष्यंत कुमार जी की जमीन पर लिखी इस शानदार ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई सादर
आदरणीय दिनेश भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।
आदरणीय मनोज भाई , आपके स्नेह और सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार । मेरी शुभ कामनायें सदा आपके साथ है ।
आदरणीया नीरज जी , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ॥
आदरणीया राजेश जी , आपने सही कहा , मतले में , से की जगह के टाइप कर दिया हूँ , सुधार कर लूंगा । ग़ज़ल की सराहना कर उत्साह वर्धन करने के लिये आपका हार्दिक आभार ।
बहुत खूब ग़ज़ल कही है आपने आ. गिरिराज भंडारी जी। एक एक शेर काबिले तारीफ है।
ग़ुरबत के पाँव घर पे मेरे जब से गड़ गये
जो खेलती थी घर में मुहब्बत नहीं रही।---बहुत खूब
जब से किसी के कोई भी चाहत नहीं रही----जब से किसी से ...कर लें शायद गलती से के आ गया
बाती के साथ तेल लिये घूमता हूँ, पर
जलने की अब दियों में वो आदत नहीं रही
ग़ुरबत के पाँव घर पे मेरे जब से गड़ गये
जो खेलती थी घर में मुहब्बत नहीं रही
असबाबे ज़िन्दगी तो बहुत आस पास हैं
क्यूँ मेरी ज़िन्दगी में वो लज़्ज़त नहीं रही
बहुत बेहतरीन ग़ज़ल हर शेर शानदार इन तीन के लिए तो ढेरों दाद लीजिये आ० गिरिराज भंडारी जी
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