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साक्षी ने सारी सीमाएं विवाह पूर्व ही तोड़ दी थी ।विवश हो उसके प्रेम विवाह को सहमति देनी पड़ी लेकिन विवाह के मात्र आठ माह बाद तीन माह की पुत्री को लेकर लौट आयी थी । बिटिया तीन वर्ष की हो गयी थी ।साक्षी ने पुनः विवाह कर लिया बेटी ननिहाल में ही पल रही थी।इसी बात से संतोष था की वह ससुराल में रम जाय लेकिन -
" माँ अब मैं उस घर नहीं जाउंगी।"

"क्यों ? अब क्या हो गया ?"

"उसे पत्नी नहीं माँ के लिए नौकरानी चाहिए थी और वह तो पूरा कंगला हैं ,मैंने तो उसकी चमक देख ब्याह किया था।"

माँ स्वयं ही बड़बड़ा उठी ,वो कंगला हैं की नहीं पता नहीं परन्तु संस्कारों के मामले में तुम अवश्य कंगली हो ।

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by Rahila on October 28, 2015 at 12:24pm
बहुत ही जबरदस्त लघु कथा हुई आदरणीया अर्चना जी ! बहुत बधाई आपको ।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on October 28, 2015 at 11:23am
बहुत सुंदर भाव पूर्ण कटाक्ष किया है आपने। अपने या परिवार जन के ग़लत फैसले या आर्थिक सुरक्षा के चक्कर में लिए ग़लत फैसले अपना ही नहीं ,सन्तान का भविष्य भी संकट में डाल देते हैं। ऐसे कंगालों और कंगलियों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है।ऐसे समय में सबक़ सिखाती इस प्रस्तुति के लिए आदरणीया Archana Tripathi जी को हृदयतल से बहुत बहुत बधाई।
Comment by TEJ VEER SINGH on October 28, 2015 at 10:42am

हार्दिक बधाई आदरणीय अर्चना त्रिपाठी जी!लडकों की दिखावे की ज़िंदगी से ललचाने वाली लडकियां जल्दबाज़ी में परिवार की सलाह के विरुद्ध फ़ैसले ले लेती हैं और बाद में अपना सिर धुनती रहती हैं!एक अच्छा विषय और उतना ही अच्छा प्रस्तुतिकरण !शानदार लघुकथा के लिये पुनः बधाई!

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