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धर्म-कर्म उत्क्रम (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी (38)

"अब तो संतुष्ट हो न ! जी भर गया हो तो चलूं मैं ? लेकिन मैं ख़ुद नहीं जा सकती न, तुम ही मुझे छोड़ने चलो, तुम ही छोड़ोगे मुझे ! " - उसने झकझोरते हुए कहा।

"अभी नहीं, कुछ दिन और रुको , मुझे मालूम है कि एक दिन तुम्हें जाना ही है, लेकिन मैं चाहता हूँ कि तुम्हारी रवानगी से दीवानगी में इजाफा ही हो, मेरी ही नहीं, सभी की ! अभी तो मुझे बहुत कुछ करना है !"

"नहीं बहुत हो गया । कितने एंगल से देखोगे मुझे ? तीन सौ साठ डिग्री हो चुका न , ढल चुकी हूँ मैं, संवर चुकी हूँ मैं ! अब मुझे आज़ाद कर दो, उन्मुक्त विचरण करने दो मुझे गगन में, जगत में , जन-जागरण के लिए साहित्य गगन में , मानव जगत में !" - इन शब्दों के साथ ही निर्देशित होकर अतिरिक्त अनावश्यक पंख गिराते हुए बेइंतहां ख़ूबसूरत 'लघुकथा' डायरी रूपी पिंजड़े से निकल कर स्वतंत्र हो गई, इन्टरनेट की दुनिया में उन्मुक्त विचरण करने लगी, कभी इस लहर पर, तो कभी उस वेब पर ! झूम रही थी सराहना पाकर!

देर रात सोया लेखक गहरी नींद में भी सपने में कभी मुस्करा रहा था, तो कभी बुदबुदा रहा था-" ख़ुश रहो, मेरा धर्म-कर्म पूरा हुआ, अब तुम अपना धर्म-कर्म, उत्क्रम करती रहो ! सृजन के बाद रचना पर पूरा अधिकार पाठकों का होता है, लेखक का नहीं रे !"

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on November 28, 2015 at 2:29pm
वाह वाह।बेहतरीन प्रस्तुति आदरणीय शेख सहज़ाद जी
Comment by DIGVIJAY on November 28, 2015 at 10:49am

सर माफी....मैं इस योग्य तो कतई नहीं हूँ कि आपकी रचना पर कोई टिप्पणी कर सकूँ लेकिन एक पाठक कि द्रिष्टि से इतना अवश्य कहूँगा कि सर मुझे इसमें लघुकथा के इतर एक आलेख का भाव ज्यादा प्रतीत हो रहा हैं...इसे अन्यथा न लें । सादर ।

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