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आदरणीय उस्मानी जी सटीक लघुकथा हुई है.लघुकथा अपने मर्म को शाब्दिक करने में सफल है. आपको बहुत बहुत बधाई
आपने भीड़ में बसे हुए अकेलों का क्या ख़ूब चित्र खींच दिया है आदरणीय , बधाई आपको इस रचना पर ,
आज के सन्दर्भ में प्रायः हर घर की यही रूप -रेखा है ये. नजदीकियां हो न हो , दूरियों ने प्राइवेसी के नाम पर अलग -अलग बंटे हुए कमरों में अपनी बढ़त खूब कायम किये हुए है। बहुत ही सटीक लघुकथा हुई है आदरणीय शहज़ाद जी। बधाई।
हार्दिक बधाई आदरणीय शेख उस्मानी जी!आपने लघुकथा के माध्यम से आज के संयुक्त परिवार का बेहतरीन खाका खींचा है!घर में छोटे बडे अगर दस लोग हैं तो दस कमरों में दस टी. वी. चलेंगे,दस ए.सी. चलेंगे!अब वह समय नहीं रहा जब घर के हॉल में सारा परिवार एक साथ टी. वी. देखता था!अब तो लंच डिनर भी बैड रूम में ही होने लगे हैं!वह भी अकेले अकेले!बेहतरीन प्रस्तुति!पुनः बधाई!
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