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2122 ----2122 -----2122 ----212

आप की गलियों के कुछ मंज़र हमें अच्छे लगे 

ठोकरें खाते हुए पत्थर हमें   अच्छे लगे 

सुनके हर्फ़े आरज़ू माथे पे शिकनें पड़ गयीं

हुस्न के बिगड़े हुए तेवर हमें अच्छे लगे 

इस तरफ आहो फ़ुग़ाँ और उस तरफ रंगीनियाँ

अहलेज़र से मुफ़लिसों के घर हमें अच्छे लगे 

नर्म गद्दों के बजाये सो गए इक टाट पर

फ़ाक़ाकश मज़दूर के बिस्तर हमें अच्छे लगे 

वक़्ते रुख़सत ग़म के मारे आगये जो आँख में

वो सरे मुज़्गाँ हसीं गौहर हमें अच्छे लगे

झुक गए जो ज़ुल्म के आगे वो सर सर ही न थे

जो वतन पे कट गए वो सर हमें अच्छे लगे 

कारवां तस्दीक़ जो मंज़िल से पहले लूट लें

किस तरह कह दें के वो रहबर हमें अच्छे लगे 

(मौलिक व अप्रकाशित )

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Comment by Tasdiq Ahmed Khan on January 11, 2016 at 10:20pm

मोहतरम जनाब समर कबीर साहिब , हौसला अफ़ज़ाई का शुक्रिया। .... आपने सही फ़रमाया। ... मज़दूर का मज़दूरों करने पर बहर से गिर जाता है /   मिसरा ही बदलना होगा। ... लफ्ज़ मिज़्गाँ गलत टाइपिंग से मुज़्गाँ हो गया। ....

Comment by जयनित कुमार मेहता on January 11, 2016 at 9:26pm
बहुत खूब!
Comment by Samar kabeer on January 11, 2016 at 9:06pm
जनाब तस्दीक़ अहमद ख़ान साहिब आदाब,बहुत अच्छी ग़ज़ल कही आपने,मुबारकबाद क़ुबूल करें ,चोथे शैर में"मज़दूर"को मज़दूरों लिखना उचित होगा क्या एक वचन और बहु वचन देखें,पांचवें शैर में आपने "मिज़्गाँ"को "मुज़्गाँ"लिखा है,दुरुस्त फ़रमा लें ।
Comment by Tasdiq Ahmed Khan on January 11, 2016 at 8:53pm

जनाब रवि शुक्ला  साहिब ,...... हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on January 11, 2016 at 8:52pm

जनाब श्याम नारायण वर्मा साहिब ,...... हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया

Comment by Shyam Narain Verma on January 11, 2016 at 4:12pm
बहुत खूब ! इस सुंदर गजल हेतु बधाई स्वीकारें ।
Comment by Ravi Shukla on January 11, 2016 at 12:04pm

आदरणीय तसदीक अहमद जी बढि़या ग़ज़ल कही है आपने दाद कुबूल करें ।

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