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दर्द भरी गहरी पुकार

दर्द भरी गहरी पुकार

हमारा रिश्ता

एक ढहा हुआ मकान ...

तुम बदले

तुम्हारे इमान बदले

मेरे सवाल, और

तुम्हारे उन सवालों के जवाब बदले

सुना है

इमान का अपना

अनोखा चेहरा होता है

सूर्य की किरणों-सा अरुणित

बर्फ़ीली दिशाओं को पिघलाता

आसमान को भी पास ले आता है

उसी अरुणता को

अपने  "आसमान "  को  

तुम्हारे इमान को 

मैं तुम्हारी आँखों में देखती थी

मेरे अस्तित्व का पोर-पोर खुल जाता था

खिल जाता था

तुम्हारे स्नेह के कंधे पर माथा टिकाए

एक पूरा युग बीत जाता था

पर अब भीतर कोई उजाड़ कुछ अजीब

खालीपन के भारीपन के बीच

मैं भटक जाने से डरती

ढहे हुए मकान के मलबे के नीचे

दबी पड़ी

आयु की रात के कुहरे में

करवट भी नहीं ले पाती

विरह की स्याह-खाई में सो नहीं पाती

हमारा वह परस्पर-गुंथन

साँसों की स्वरसंगति में उलझन

और हमारी बातों में कसैला अन्तराल

ऊपर अँधियारा आसमान

तुम्हारा बदला हुआ इमान ...

मेरे लिए यह सभी

बड़े-बड़े सवाल बने खड़े हैं

उलझे सवालों में उलझा मुरझाया रिश्ता

काली-काली-पहचानी उदास गलियों में

हमारी छटपटाती छायाएँ

मेरी दर्द भरी गहरी पुकार

पर है अब इन सब सवालों से बड़ा 

एक और अनदिखा सियाह सवाल ...

मैं जीऊँ   

कि न जीऊँ  ?

------

विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 852

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Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on February 1, 2016 at 8:33pm
साँसों की स्वरसंगति में उलझन
और हमारी बातों में कसैला अन्तराल
ऊपर अँधियारा आसमान
तुम्हारा बदला हुआ इमान ...
मेरे लिए यह सभी
बड़े-बड़े सवाल बने खड़े हैं

वाह्ह्ह्।बेहतरीन भाव।हार्दिक बधाई आदरणीय
Comment by Sushil Sarna on February 1, 2016 at 8:20pm

उलझे सवालों में उलझा मुरझाया रिश्ता
काली-काली-पहचानी उदास गलियों में
हमारी छटपटाती छायाएँ
मेरी दर्द भरी गहरी पुकार
पर है अब इन सब सवालों से बड़ा
एक और अनदिखा सियाह सवाल ...
मैं जीऊँ
कि न जीऊँ ?

वाह आदरणीय निकोर साहिब वाह .... अंतर्मन की वेदना को आपकी कलम ने मार्मिकता की स्याही से अपने शब्दों में बहुत ही खूबसूरती से कागज़ पर उकेरा है। दिल से बधाई स्वीकार करें आदरणीय।

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