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गुनगुनाऊँ मैं- ग़ज़ल (पंकज)

1222 1222 1222 1222

सदा खामोश रहने से है बेहतर गुनगुनाऊँ मैं।
कभी खुद की कभी औरों की ख़ातिर मुस्कुराऊँ मैं।।

ग़मों के नीर से दुनिया तो वैसे ही लबालब है।
बताओ क्यों भला आँखों से दरिया इक बहाऊँ मैं।।

रुलाने के लिए कारण बहुत सारे हैं राहों में।
अभीप्सा है कि रोते मन को भीतर तक हंसाऊँ मैं।।

नहीं मालूम हूँ कितना सफल मैं इस प्रयोजन में।
बिना फल की किये चिंता करम करता ही जाऊँ मैं।।

हाँ इतना तो है तय लोगों के भावों तक पहुंच मेरी।
तुम्हारे उसके सबके मन को कागज़ पर सजाऊँ मैं।।

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by TEJ VEER SINGH on February 10, 2016 at 2:51pm

हार्दिक बधाई आदरणीय पंकज मिश्रा जी!बेहतरीन गज़ल!

नहीं मालूम है कितना सफल मैं हूँ प्रयोजन में।
बिना फल की किये चिंता करम करता ही जाऊँ मैं।।

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 10, 2016 at 12:03pm
आदरणीय जयनीत जी सादर आभार। समय मिलते ही सुझावों के अनुरूप सुधार किया जाएगा, सादर।
Comment by जयनित कुमार मेहता on February 10, 2016 at 8:59am
आदरणीय पंकज मिश्र जी,
सुन्दर ग़ज़ल के बधाई आपको।।

मतले में खामोश के पहले 'बहुत' का प्रयोग खटक रहा है,
अगर बहुत के जगह पर "सदा" लिखा जाए तो मिसरे की सुंदरता बढ़ जाएगी।।
फिर दूसरे शेर में 'इक' की जगह "फिर" करना ज़्यादा बेहतर लग रहा है मुझे।
इसी तरह तीसरे शेर में पहले ही शब्द 'अभीप्सा' से मिसरा बेबह्र हो रहा है, क्यों इस शब्द का वज़्न 1212 है।
चौथे शेर का मिसरा-ए-ऊला यूं लिखने पर सार्थक हो सकता है
"नहीं मालूम होऊंगा सफल कितना प्रयोजन में"...

इस मंच के उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही मैंने उपर्युक्त विचार रखें हैं मैंने।
आशा करता हूँ,आप अन्यथा न लेंगे,सादर।।

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