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संग क़ातिल का तू मांगता, क्या करूँ- ग़ज़ल इस्लाह के लिये

2122 122 122 12
है गज़ब का तेरा, मामला क्या करूँ।
संग क़ातिल का तू, मांगता क्या करूँ।।

ये मुहब्बत की औ मुस्कुराने की ज़िद।
मन तू पागल हुआ, जा रहा क्या करूँ।

डूबकर तू नज़र के समन्दर में भी।
आंसुओं से बचत, चाहता क्या करूँ।।

जाल में खुद उलझ कर परिंदे बता।
ख्वाब परवाज़ के, देखता क्या करूँ।।

तू बता खुद ही तू, रास्ता अब दिखा।
आग से प्यास का, फैसला क्या करूँ।।

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 16, 2016 at 2:37pm
आदरणीय लक्षमण सर सादर आभार
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 16, 2016 at 11:51am

आ0 भाई पंकज जी इस सुंदर गजल के लिए बहुत बहुत बधाई ।

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 16, 2016 at 12:29am
और यहाँ आपकी ग़ज़ल देखकर ज़ह्न में एक सवाल उठ रहा है कि ओबीओ का ये ख़ास नियम होते हुए भी ऐसी रचनाऐं अप्रूव्ड क्यूँ हो जाती हैं ? ऐसी रचनाओं को स्वीकृति मिलना ग़ैर ज़िम्मेदाराना अमल है ,मैं जनाब एडमिन साहिब को इस तरफ़ तवज्जो दिलाना चाहता हू।


आदरणीय समर कबीर सर, इस बात का अर्थ समझ नहीं पा रहा हूँ, कुछ स्पष्ट करेंगे तो अच्छा होगा।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 16, 2016 at 12:15am
आदरणीय समर कबीर सर, सादर कुछ बिंदु प्रस्तुत हैं, समुचित उत्तर की अभिलाषा है।
ब्लेक (ब्लैक)
अटेक (अटैक)
पेक (पैक)

कुछ और भी अपभ्रंश जो ग़ज़लों में प्रयुक्त होते हैं-

भरम (भ्रम)
करम (कर्म)
धरम (धर्म)

आदि.......


मुआमला शुद्धतम रूप है, लेकिन मामला अद्यतन प्रचलित और साहित्य तथा व्यवहार में मान्य शब्द है।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 16, 2016 at 12:00am
एक प्रश्न-मुआमला की मात्रा क्या होगी?

क्या मामला शब्द जो की प्रचलन में है, उसे अस्वीकार किया जाए?

क्या ग़ज़ल में अपभ्रंश/ लोकप्रचलन के शब्द प्रयुक्त नहीं होते?
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 15, 2016 at 11:57pm
आदरणीय समर कबीर सर, आपके सुझाव स्वीकार्य हैं, मौलिक-अप्रकाशित गलती से छूट गया, अक्सर लिख देता हूँ। सादर
Comment by Samar kabeer on February 15, 2016 at 11:35pm
जनाब पंकज कुमार मिश्रा जी,आदाब,अच्छी ग़ज़ल से नवाज़ा है आपने मंच को,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें ।
मतले के ऊला मिसरे में "मामला" शब्द लिया है आपने,आपकी जानकारी के लिये बताना चाहता हूँ,सही शब्द "मुआमला" है ।
आपने अपनी ग़ज़ल के नीचे मौलिक व अप्रकाशित नहीं लिखा है,और यहाँ आपकी ग़ज़ल देखकर ज़ह्न में एक सवाल उठ रहा है कि ओबीओ का ये ख़ास नियम होते हुए भी ऐसी रचनाऐं अप्रूव्ड क्यूँ हो जाती हैं ? ऐसी रचनाओं को स्वीकृति मिलना ग़ैर ज़िम्मेदाराना अमल है ,मैं जनाब एडमिन साहिब को इस तरफ़ तवज्जो दिलाना चाहता हूँ ।

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