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मेरा ओछा पन भी उनको झूम झूम के गाता है
जिन शेरों में कुत्ता –बिल्ली, हरामजादा आता है
वफा और समझ का मानी एक कहाँ दिखलाता है
रख के टेढ़ी पूँछ भी कुत्ता इसीलिये इतराता है
खोटे दिल वालों की नज़रें, सुनता हूँ झुक जातीं हैं
और कोई बातिल सच्चों में आता है, हकलाता है
वो क्या हमको शर्म- हया के पाठ पढ़ायेंगे यारो
जिनको आईना भी देखे तो वो शर्मा जाता है
सबकी चड्डी फटी हुई है, दाग़ सभी के कुर्ते में
जो जिसका सिलता- धोता है, वो ही उसको भाता है
पीस रहा है दाल अगर कोई अंधा सिल बट्टे में
तो फिर पीसी दाल ज़ियादा कुत्ता ही खा जाता है
शहर हमारा बँटा हुआ है बस्ती, डेरों- खेमों में
फूटी आँखों से भी कोई, किसको कहाँ सुहाता है
मेरी आँखों से नींदों-ख्वाबों की बातें मत करना
मेरी क़िस्मत में सदियों से लिक्खा ही जगराता है
किसी तसव्वुर को घुसने की नहीं इजाज़त दी हमनें
जो कुछ देखा, सुना- पढ़ा है वो ही लिक्खा जाता है
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीया राहिला जी , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया ।
आदरणीय आशुतोष भाई , सराहना के लिये आपका आभार ।
आदरणीय रवि भाई , हौसला अफज़ाई का शुक्रिया ! और बाक़ी एक ही बात कहूँगा कि चलन ऐसी ही है -'' महाजनो येन गतो सपंथा ''
वैसे अगर आप शेर को गहराई से समझें तो मै आपके पाले मे ही दिखूँगा । कीचड़ मे फँसे को निकालने के लिये कभी कीचड़ मे उतरना भी पड़ जाता है , और इसी बात से लोग डरते हैं ।
आदरणीय बड़े भाई अखिलेश जी , सराहना और विस्तार से प्रतिक्रिया के लिये आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीय भाईसाब ..वर्तमान परिदृश्य को ग़ज़ल के माध्यम से बखूबी चित्रित करने में आप सफल रहे हैं ..खरे खरे अंदाज में खरी खरी बातें पढ़कर आनंद आ गया ..इस शानदार रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर प्रणाम के साथ
आदरणीय गिरिराज जी बहुत बहुत बधाई आपको इस गजल के लिये बेहद तीखे तंज है व्यवस्था के लिये । बुरे को बुरा कहने के लिये बुरे शब्द इस्तेमाल करना शायद मजबूरी हो । शब्दतो उसी बारहखड़ी का हिस्सा है उससे कोई भी शब्द बाहर नहीं है किन्तु उनके अर्थ हमारे मानस पर अलग तरह से प्रभाव डालते हैै । गजल जैसी सिन्फे नाजुक में कटु अर्थ के अल्फाज काा प्रयोग कभी रुचिकर नहीं लगा चाहे किसी भी सोशल माध्यम पर हो प्रिंट माध्यम पर हो । मंच से हो । भाषाई सौंदर्य बनाये रखने का प्रयास होना चाहिये । यह कोई व्यकितगत टिप्पणी नहीं है बस आपकी गजल पढ़ी तो उसके हवाले से बात निकली तो साझा करली । गजल के लिये पुन: बधाई स्वीकार करें ।
प्रिय गिरिराज
दुनिया मतलबी चापलूसों झूठे मक्कारों की है बहुमत भी उन्हीं का है, लोकतंत्र में बहुमत का ही महत्व है इसलिए ऐश भी वही कर रहे हैं।सीधा सरल सच्चा व्यक्ति तो रोज सुबह स्वयं और परिवार को जिंदा पाकर ही खुश हो जाता है।
खोटे दिल वालों की नज़रें, सुनता हूँ झुक जातीं हैं
और कोई बातिल सच्चों में आता है, हकलाता है ........
आजादी पूर्व तक ये पंक्तियाँ भले ही सही रही हो आज की दुनिया तो दबंगों की है। न्याय पर भी भरोसा उठता जा रहा है।
एक उदाहरण ....... किसी के यहाँ आयकर के छापे पड़ जाय और करोड़ों अरबों का घपला हो तो लड़की और लड़के वालों की लाइन लग जाती है उस परिवार से रिश्ता जोड़ने के लिए । जाति धर्म शिक्षा नौकरी सब भूल जायेंगे। अब कोई नहीं शर्माता सभी बेशरम हो चुके हैं।
`जिनको आईना भी देखे तो वो भी शर्मा जाता है
हार्दिक बधाई इस गजल के लिए, विधा पर तो जानकार ही टिप्पणी करेंगे।
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