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नूर की हिंदी ग़ज़ल ..दर्पणों से कब हमारा मन लगा

२१२२/२१२२/२१२ 
.
दर्पणों से कब हमारा मन लगा
पत्थरों के मध्य अपनापन लगा. 
.
लिप्त है माया में अपना ही शरीर
ये समझ पाने में इक जीवन लगा.
.
तप्त मरुथल सी ह्रदय की धौंकनी
हाथ जब उस ने रखा चन्दन लगा.
.
मूर्खता पर करते हैं परिहास अब
जो था पीतल वो हमें कुन्दन लगा.
.
प्रेम में भी कसमसाहट सी रही
प्रेम मेरा आपको बन्धन लगा.
.
जल रहे हैं हम यहाँ प्रेमाग्नि में
और उस पर ये मुआ सावन लगा.
.
मंदिरों की सीढ़ियों पर भूख थी 
चन्द्र भिक्षापात्र सा बर्तन लगा.
.
माँ को अम्मी कह रहा था मित्र, बस!
उसका आँगन अपना ही आँगन लगा.         
.
निलेश "नूर"
.
मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by बसंत कुमार शर्मा on May 9, 2017 at 1:42pm

वाह मुग्ध हूँ पढ़कर, लाजब ग़ज़ल हुई है आदरणीय, सारे शेर अप्रतिम 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 9, 2017 at 1:09pm

शुक्रिया आ. मोहम्मद आरिफ़ साहब 

Comment by Mohammed Arif on May 9, 2017 at 1:01pm
वाह!वाह!! अद्भुत, बेजोड़, अनुकरणीय, तीव्ररता का आवेग लिए बेहतरीन हिंदी ग़ज़ल आदरणीय नीलेश जी । शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें ।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 9, 2017 at 12:39pm

शुक्रिया आ. रवि जी;


ग़ज़ल के ऐब हिंदी को ढाल बनाकर छुपाने का कुत्सित प्रयास हो रहा है तो सोचा कि एक सार्थक पहल करते हुए हिंदी ग़ज़ल कही जाय ..
आप के अनुमोदन से प्रयास सफल हुआ प्रतीत होता ..
सादर 

Comment by Ravi Shukla on May 9, 2017 at 12:00pm

बहुत खूब आदरणीय नीलेश जी अच्‍छी गजल कही आपने शेर दर श्‍ाेर बधाई स्‍वीकार करें

कृपया ध्यान दे...

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