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ग़ज़ल - जो मुद्दत से मुझे पहचानता है

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मेरी पहचान को खारिज़ किया है ।
जो मुद्दत से मुझे पहचानता है ।।

खुशामद का हुनर बख्सा है रब ने ।
खुशामद से वो आगे बढ़ रहा है ।।

जतन कितना करोगे आप साहब ।
ये भ्रष्टाचार अब तक फल रहा है ।।

यकीं होता नही जिसको खुदा पर ।
वही इंसां खुदा से माँगता है ।।

उन्हें ही डस रहें हैं सांप अक्सर ।
जो सापों को घरों में पालता है ।।

गया मगरिब में देखो आज सूरज ।
पता वह चाँद का भी ढूढता है ।।

मदारी के लिए जो है कमाऊ। वही बन्दर हमेशा नाचता है ।।

गरीबी में हुआ जीना है मुश्किल ।
कोई बाबा को बेटी बेचता है ।।

नई सूरत को अक्सर ढूढते हैं। यही इंसानियत का फलसफा है ।।

है उनका दूर ही रहना मुनासिब । कहाँ उन से हमारा वास्ता है ।।

न जाने क्या हुआ है आदमी को । पराये माल को ही देखता है ।।

--- नावीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Naveen Mani Tripathi on September 13, 2017 at 8:47am
आ0 कबीर सर बहुत बहुत आभार सर ।
Comment by Afroz 'sahr' on September 12, 2017 at 6:30pm
आली जनाब समर कबीर साहब आप एक बेहतरीन टीचर हैं! इस्लाह करने का आपका अंदाज़ निराला है!
Comment by Samar kabeer on September 12, 2017 at 6:19pm
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
मतले का ऊला मिसरा:-
'मेरी पहचान को ख़ारिज किया है'
'किया है'क्या मतलब,ये मिसरा यूँ कीजिये :-
'मेरी पहचान ख़ारिज कर रहा है'
दूसरे शैर के ऊला मिसरे में 'बख्सा'को "बख़्शा"कर लें ।
चौथे शैर में क्या कहना चाहते हैं आप ?

'उन्हें ही डस रहे हैं साँप अक्सर
जो साँपों को घरों में पालता है'
इस शैर में शुतरगुर्बा का ऐब है, ऊला मिसरा यूँ कर सकते हैं:-
'उसे डसते हैं अक्सर साँप देखो'
छटे शैर के सानी मिसरे में 'ढूढता' को "ढूँढता" कर लें ।
9वें शैर के ऊला में 'ढूढते'को "ढूँढते" कर लें ।

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