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बरबादियाँ ही सब तरफ आती हैं इससे बस - गजल

221 2121 222 1212


हाकिम ही  देश लूट के जब यूँ  फरार हो
ऐसे में किस पे किस तरह तब ऐतबार हो।१।


रूहों का दर्द बढ़ के जब जिस्मों को आ लगे
बातों  से  सिर्फ  बोलिए  किसको  करार हो।२।


इनकी तो रोज ऐश  में  कटती है खूब अब
क्या फर्क इनको रोज ही जनता शिकार हो।३।


हर शख्श जब तलाश में अवसर की लूट के
हालत में देश की  भला  फिर क्या सुधार हो ।४।


मुट्ठी में सबको चाहिए पलभर में चाँद भी
मंजिल के  बास्ते  किसे  तब  इन्तजार हो ।५।


हमसे खिजाँ का वास्ता पड़ता रहे मगर
हिस्से में उनके हर कहीं आयी बहार हो ।६।


बरबादियाँ ही सब तरफ आती हैं इससे बस
खूँ का जुनून  तो  किसी  सर  मत सवार हो।७।


माना कि हम तो प्यार के काबिल नहीं मगर
दिल तो किसी  पे  दोस्तो  अपना निसार हो।८।

मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 13, 2018 at 2:15pm

आ. नरेंद्र जी, सादर आभार ।

Comment by TEJ VEER SINGH on September 13, 2018 at 1:33pm

हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"जी।बेहतरीन गज़ल।

हर शख्श जब तलाश में अवसर की लूट के
हालत में देश की  भला  फिर क्या सुधार हो ।४।

Comment by narendrasinh chauhan on September 13, 2018 at 12:51pm

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