खाता क्यों है खार पड़ौसी
क्या मन है बीमार पड़ौसी।१।
इतनी जल्दी भूल गया क्यों
बचपन के हम यार पड़ौसी।२।
सच जाने पर खूब करे क्यों
बेमतलब तकरार पड़ौसी।३।
जो कहना है सम्मुख कह दे
मत कर पीछे वार पड़ौसी।४।
जबरन हम तो नहीं घुसेंगे
क्यों ढकता है द्वार पड़ौसी।५।
लड़ना भिड़ना पागलपन है
इसमें सब की हार पड़ौसी।६।
तुझको दुनिया जान गयी है
मत बन तू हुशियार पड़ौसी।७।
सदियों से कश्मीर हमारा
तेरा क्या अधिकार पड़ौसी।८।
नफरत इतनी ठीक नहीं है
बाँटा कर कुछ प्यार पड़ौसी।९।
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
आ. भाई विजय निकोर जी, सादर अभिवादन । स्नेहाशीष के लिए आभार।
गज़ल अच्छी लगी। हार्दिक बधाई, आदरणीय लक्ष्मण जी
आ. भाई मिर्जा जावेद जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए आभार।
जनाब लक्ष्मण धामी जी आदाब शानदार ग़ज़ल के लिए दिली मुबारकबाद पैश करता हूं ।
आ. भाई बृजेश जी, गजल की प्रशंसा कर उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद ।
वाह बड़ी ही अच्छी ग़ज़ल कही है आदरणीय...हर एक शेर लाजबाब..
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार । मार्गदर्शन करते रहिए ।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
आ. भाई पंकज जी, गजल पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार।
आदरणीय लक्ष्मण धामी सर बहुत-बहुत बधाई इस बेहद खूबसूरत गजल के लिए
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