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बरबादियाँ ही सब तरफ आती हैं इससे बस - गजल

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हाकिम ही  देश लूट के जब यूँ  फरार हो
ऐसे में किस पे किस तरह तब ऐतबार हो।१।


रूहों का दर्द बढ़ के जब जिस्मों को आ लगे
बातों  से  सिर्फ  बोलिए  किसको  करार हो।२।


इनकी तो रोज ऐश  में  कटती है खूब अब
क्या फर्क इनको रोज ही जनता शिकार हो।३।


हर शख्श जब तलाश में अवसर की लूट के
हालत में देश की  भला  फिर क्या सुधार हो ।४।


मुट्ठी में सबको चाहिए पलभर में चाँद भी
मंजिल के  बास्ते  किसे  तब  इन्तजार हो ।५।


हमसे खिजाँ का वास्ता पड़ता रहे मगर
हिस्से में उनके हर कहीं आयी बहार हो ।६।


बरबादियाँ ही सब तरफ आती हैं इससे बस
खूँ का जुनून  तो  किसी  सर  मत सवार हो।७।


माना कि हम तो प्यार के काबिल नहीं मगर
दिल तो किसी  पे  दोस्तो  अपना निसार हो।८।

मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 18, 2018 at 11:32pm

आ. भाई बृजेश जी, गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार ।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 18, 2018 at 8:46am

बड़ी अच्छी ग़ज़ल कही आदरणीय...

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 15, 2018 at 8:53pm

आ. भाई समर जी, मार्गदर्शन के लिए आभार । बदलाव का सतत प्रयास करूँगा । 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 15, 2018 at 7:50pm

आ. भाई समर जी, मार्गदर्शन के लिए आभार । बदलाव का सतत प्यास करूँगा ।

Comment by Samar kabeer on September 15, 2018 at 11:30am

मिसाल के तौर पर :-

'हाकिम ही  देश लूट के जब यूँ  फरार हो
ऐसे में किस पे किस तरह तब ऐतबार हो'

मतले के ऊला मिसरे में 'यूँ'शब्द भर्ती का है, और सानी में 'किस तरह तब',ये मतला मेरे ख़याल में यूँ होना चाहिए :-

'हाकिम ही देश लूट के यारो फ़रार हो

ऐसे में किस पे कैसे भला एतिबार हो'

' बातों  से  सिर्फ  बोलिए  किसको  करार हो'

ये मिसरा यूँ करें तो गेयता बहतर हो:-

'बातों से सिर्फ़ कैसे किसी को क़रार हो'

इनकी तो रोज ऐश  में  कटती है खूब अब
क्या फर्क इनको रोज ही जनता शिकार हो'

इस शैर के दोनों मिसरों में 'रोज़' शब्द खटक रहा है ।

हर शख्श जब तलाश में अवसर की लूट के
हालत में देश की  भला  फिर क्या सुधार हो"

इस शैए का ऊला मिसरा में 'तलाश'अर्थहीन है, और 'अक्सर की लूट के'ये टुकड़ा भी भर्ती का है,और सानी भी कुछ और समय चाहता है ।

मुट्ठी में सबको चाहिए पलभर में चाँद भी
मंजिल के  बास्ते  किसे  तब  इन्तजार हो'

इस शैर के ऊला में 'भी' शब्ज़ भर्ती का है, औए सानी में 'बास्ते' को "वास्ते" कर लें ।

'हिस्से में उनके हर कहीं आयी बहार हो '

इस मिसरे में 'हर कहीं' शब्द भर्ती का है ।

'बरबादियाँ ही सब तरफ आती हैं इससे बस
खूँ का जुनून  तो  किसी  सर  मत सवार हो'

ये शैर भी शिल्प की दृष्टि से बहुत कमज़ोर है ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 14, 2018 at 10:13pm

आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और मार्गदर्शन के लिए आभार । यदि मिसरों के बारे इंगित कर देते तो सुधार का प्रयास होता । 

Comment by Samar kabeer on September 14, 2018 at 11:35am

जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

शिल्प की दृष्टि से कई मिसरे कमज़ोर नज़र आये,इस पर विचार करने की ज़रूरत है ।

4थे शैर के ऊला में' शख्श' को "शख़्स" कर लें ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 13, 2018 at 6:45pm

आ. भाई बसंत जी, सादर अभिवादन । गजल पर उत्साहवर्धक उपस्थिति के लिए आभार ।

Comment by बसंत कुमार शर्मा on September 13, 2018 at 4:23pm

आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी नमस्कार, बहुत बढ़िया समसामयिक गजल हुई है, बधाई आपको 

रूहों का दर्द बढ़ के जब जिस्मों को आ लगे
बातों  से  सिर्फ  बोलिए  किसको  करार हो --वाह क्या कहने गूढ़ अर्थ लिए हुए शानदार शेर 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 13, 2018 at 2:16pm

आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद ।

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