२२१/१२२२/२२१ /१२२२
इस द्वार गड़े मुर्दे उस द्वार गड़े मुर्दे
जीवन में लड़ाते हैं क्यों यार गड़े मुर्दे।१।
हर बार नया मुद्दा पैदा तो नहीं होता
देते हैं सियासत को आधार गड़े मुर्दे।२।
मौसम है चुनावी क्या राहों में खड़ा यारो
लेने जो लगे हैं फिर आकार गड़े मुर्दे।३।
भाता नहीं जिनको भी याराना जमाने में
लड़ने को उखाड़ेंगे दो चार गड़े मुर्दे ।४।
इतिहास जिसे कहते कुछ और नहीं है वो
शब्दों में बदल रखता सन्सार गड़े मुर्दे ।५।
बिष खूब हैं फैलाते नफरत की हवा पाकर
कर दें न कहीं हम को बीमार गड़े मुर्दे।६।
वो शख्स बड़ा लेकिन फितरत से गलत ही है
जो खोद के लाता है हर बार गड़े मुर्दे।७।
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
आ. भाई विजय जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार ।
आप गज़ल अच्छी लिखते हैं। इस एक और गज़ल को पढ़ कर आनन्द आ गया।हार्दिक बधाई, आदरणीय लक्ष्मण जी
आ. भाई गरप्रीत जी, सादर अभिवादन । उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद।
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन । प्रशंसा के लिए आभार ।
आ. भाई गंगाधर जी, सादर अभिवादन ।गजल की प्रशंसा से मान बढ़ाने के लिए धन्यवाद।
आ. भाई समर जी, पुनः उपस्थिति के लिए आभार।
वाह वाह आदरणीय लक्ष्मण धामी जी , बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल कही आपने , बधाई स्वीकर करें
हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी।बेहतरीन गज़ल।
वो शख्स बड़ा लेकिन फितरत से गलत ही है
जो खोद के लाता है हर बार गड़े मुर्दे।७।
वाह...वाह वाह....आदरणीय मुसाफिर साहब...बहुत ही समसामयिक .........बल्कि सर्वकालिक तथ्यों को उजागर करती उम्दा गज़ल के लिए हार्दिक बधाई...
अच्छा बदलाव किया भाई ।
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