२२१/२१२१/ १२२१/२१२
दिल से चिराग दिल का जलाकर गजल कहें
नफरत का तम जहाँ से मिटाकर गजल कहें।१।
पुरखे गये हैं छोड़ विरासत हमें यही
रोते हुओं को खूब हँसाकर गजल कहें।२।
कोई न कैफियत है अभी जलते शहर को
आओ धधकती आग बुझाकर गजल कहें।३।
रखता नहीं वजूद ये वहशत का देवता
सोया जमीर खुद का जगाकर गजल कहें।४।
बैठा दिया दिलों में सियासत ने मैल कुछ
गंगा में फिर से यार नहाकर गजल कहें।५।
मिलजुल के रहना साथ है तहजीब दोस्तो
सदियों की जो है रीत निभाकर गजल कहें।६।
हमको गजल का ठीक से आया न ककहरा
रखते अधिक हुनर हैं जो आकर गजल कहें।७।
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मौलिक अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
आ. भाई बृजेश जी, स्नेह के लिए आभार ।
आ. भाई अजय जी, सादर अभिवादन । गजल की प्रशंसा के लिए आभार।
वाह आदरणीय क्या ही खूबसूरत ग़ज़ल कही है...
आदरणीय लक्ष्मण जी, खूबसूरत अशआर हुए हैं. हार्दिक बधाई.
आ. भाई बसंत जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार ।
आ. भाई नवीन जी, सादर अभिवादन ।गजल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आ0 मुसाफ़िर साहब अप्रतिम ग़ज़ल के लिए बधाई । हर शेर लाजवाब ।
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी शुभ प्रभात, वाह लाजबाब गजल हुई है बहुत बहुत बधाई आपको
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन । गजल की प्रशंसा के लिए धन्यवाद।
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । स्नहाशीष के लिए आभार ।
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