जीवन में मत जमीर को पलभर सुलाइए।
सोने लगे तो फेंक के पानी जगाइए।
बेगैरतों के शह्र में रहते जो शौक से,
अपने घरों की लाज को उनसे बचाइए।
अनमोल रत्न शील ही होता जहान में,
यूँ कौड़ियों के मोल इसे मत लुटाइए।
जिसने दिये हों सात वचन सात जन्मों के,
केवल उसी के सामने घूँघट उठाइए।
बीमारियाँ चरित्र की लगती हैं छूत से,
पीड़ितजनों के पास जियादा न जाइए।
बस दागदार करते जो घर की दीवारों को,
वैसे चिराग हाथ से अपने बुझाइए।
झुकने की बात से ही उबल जाता खूं बहुत,
भूले से ऐसी बातें न हमको सुनाइए।
क्यों कर रहे हैं आप जमाने से मिन्नतें,
कुछ आपके रहे नहीं क्या हम, बताइए।
मधुमक्खियों से खौफ अगर खा रहा जिगर,
मन में पुए न मीठे शहद के पकाइए।
वो दोस्ती का हाथ बढ़ाया था आपने,
बेशर्मियों से मत यूँ नजर अब चुराइए।
"गौरव" हुआ भरम उसे, है वो ही आसमां,
जा के उसे जमीनी हकीकत दिखाइए।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय गुरुदेव, आपका ह्रदय से आभार । मेरी रचना आपके दिल को छू सकी...........हमेशा की तरह आपका स्नेह पाकर मन हर्षित हो रहा है......
मधुमक्खियों से खौफ अगर खा रहा जिगर,
मन में पुए न मीठे शहद के पकाइए।.... बहुत सही.
उपदेशात्मक शैली में यह ग़ज़ल विशिष्ट है, भाई अजीतेन्दुजी.
बधाई.
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय विजय मिश्र जी। सादर
स्नेह के लिए आपका आभारी हूँ मित्र अरुन शर्मा अनन्त जी।
वाह वाह वाह जानदार शानदार धारदार मित्रवर अहा !!!! इस शानदार ग़ज़ल हेतु ह्रदय से ढेरों बधाई स्वीकारें.
आपका हार्दिक स्वागत है आदरणीय जितेन्द्र 'गीत' जी। हार्दिक आभार।
सराहना के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय अभिनव सर
दिल से आभारी हूँ आदरणीय बृजेश भैया
रचना को सराहने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद आपका आदरेया महिमा जी। व्यस्तता के कारण आना कम हो पाता है। आपसे सराहना पाकर मन हर्षित है। सादर
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