For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

राम-रावण कथा (पूर्व पीठिका) 24, 25

कल से आगे ...........

-24-

‘‘प्रिये लंका में आपका स्वागत है।’’ रावण ने कक्ष में प्रवेश करते हुये कहा।
मंदोदरी पर्यंक से उठकर खड़ी हो गयी और उसने आगे बढ़कर झुककर रावण के चरणों में अपना मस्तक रख दिया।

‘‘अरे ! यह क्या करती हैं ? आपका स्थान तो रावण के हृदय में है।’’ कहते हुये रावण ने उसे उठा कर अपने सीने से लगा लिया।

मंदोदरी ने भी पूर्ण समर्पण के साथ अपना सिर उसके विशाल वक्ष पर रख दिया।

यह तय हुआ था कि कुबेर के प्रस्थान से पूर्व ही रावण का विधिवत राज्याभिषक हो जाये। अधिक भव्यता का प्रदर्शन नहीं किया गया था इस कार्यक्रम में। रावण के पिता और पितामह के अतिरिक्त उसके पितृकुल से कुबेर और कुबेर की माता देववर्णिनी उपस्थित थे। उसका सम्पूर्ण मातृकुल था और कुछ चुनिंदा यक्ष, दैत्य और गंधर्व आदि के प्रतिनिधि उपस्थित थे। पुलस्त्य और विश्रवा की उपस्थिति में सादा किंतु पूरे विधान से सम्पन्न हुआ था राज्याभिषेक। प्रजा ने भी पूरे उत्साह से भाग लिया था। समारोह की सादगी देख कर प्रजा अचंभित भी थी और सच कहा जाय तो मायूस भी थी। उसे तो कुबेर के काल में भव्यतम समारोह देखने का अभ्यास था। उस कसौटी पर यह सादा समारोह उसे फीका-फीका सा लग रहा था किंतु उसे अभी क्या पता था कि भविष्य में लंकेश्वर के समस्त आयोजन भव्यता की नवीन परिभाषा लिखने वाले थे।


राज्याभिषेक के एक दिन पूर्व दानवराज मय ऋषिवर विश्रवा के कक्ष में पहुँचे थे और उन्होंने उनके समक्ष अपनी सर्वांग सुन्दरी कन्या मन्दोदरी रावण को समर्पित करने का प्रस्ताव रख दिया। विश्रवा की दृष्टि में इस विवाह में कोई बाधा नहीं थी। मय स्वयं एक सम्मानित दैत्य सम्राट था और मन्दोदरी की ख्यात भी एक अत्यंत सुन्दर और विदुषी कन्या के रूप में उन्होंने सुनी थी, फिर भी उन्होंने रावण के वयस्क हो जाने की बात कहते हुये निर्णय रावण पर ही छोड़ दिया। रावण ने अपने मातामह सुमाली से सलाह ली थी। सुमाली ने देखा कि यह प्रस्ताव राजनैतिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टियों से लाभप्रद है अतः उसने सहर्ष यह प्रस्ताव स्वीकार करने का परामर्श दिया था। मय के प्रस्ताव पर ही रावण और मन्दोदरी की एक पर एक भेंट हुई थी और उस भेंट में रावण निश्चय ही मन्दोदरी से प्रभावित हुआ था। इसके बाद विलंब का कोई कारण नहीं था। सभी परिजन उपस्थित थे ही अतः राज्यारोहण के साथ ही यह विवाह भी सम्पन्न हो गया था। राज्यारोहण के कारण एक सप्ताह रावण अत्यंत व्यस्त रहा था। राजमहिषी के नाते मंदोदरी अधिकांशतः उसके साथ ही रही थी फिर भी उन्हें एकांत में मिलने का कोई अवसर प्राप्त नहीं हुआ था। आज विवाह के उपरांत एक सप्ताह बाद वे अपने कक्ष में एकान्त में मिल रहे थे।


‘‘लगता है लंकेश किन्हीं गंभीर विचारों में खो गये हैं ?’’ रावण को बहुत देर तक चुप देख कर मंदोदरी ने उसके वक्ष से सिर उठाकर उसकी आँखों में झाँकते हुये प्रश्न किया।
‘‘अरे नहीं महारानी ! रावण तो अपने सौभाग्य पर इतरा रहा था।’’
‘‘सौभाग्यशाली तो आप निश्चय ही हैं। किंतु क्या हम यूँ खड़े ही रहेंगे ?’’ मंदोदरी ने शोखी से कहा।
‘‘अरे नहीं महारानी !’’ रावण ने भी उसी शोखी से उत्तर देते हुये उसे फौरन बाहों में उठा लिया और पर्यंक की ओर बढ़ चला।
‘‘लंका आपको अच्छी तो लगी।’’ मंदोदरी को पर्यंक पर लिटाते हुये रावण ने पूछा।
‘‘मुझे तो लंकेश अच्छे लगे। वे तो मेरी आँखों में ऐसे बसे हैं कि और कुछ दिखाई ही नहीं देता।’’
‘‘आप तो कविता भी कर लेती हैं।’’
‘‘पति के गुणों का कुछ अंश तो पत्नी में भी होना ही चाहिये।’’
‘‘ओ हो ! तो और क्या-क्या गुण पाये हैं पत्नी जी ने ?’’
‘‘नृत्य, संगीत, कला, दर्शन सबमें निष्णात है आपकी पत्नी। अभियान्त्रिकी उसे पिता से विरासत में मिली है और शस्त्र विद्या तो प्रत्येक दानव वंशी का पहला पाठ होता ही है।’’
‘‘अरे वाह ! तात्पर्य रावण ने मात्र विदुषी ही नहीं, सर्वगुण सम्पन्न पत्नी पाई है। धन्य हो गया रावण आपको पाकर !’’
‘‘सो तो है !’’ मन्दोदरी ने रावण का मुकुट उतार कर रख दिया था। वह उसके केशों में प्यार से उँगलियाँ फिराती हुई बोली।
‘‘तो फिर बताइये ऐसी सर्वगुण सम्पन्न पत्नी की सेवा किस प्रकार करे लंकेश्वर ?’’ रावण ने मंदोदरी के कपोलों को अपनी दोनों हथेलियों में भरकर अपनी दृष्टि उसकी आँखों में टिकाये हुये पूछा ?
‘‘किंतु लंकेश्वर अभी मंदोदरी के गुणों की गणना तो अधूरी ही रह गयी है। आपकी पत्नी आपको अपने हाथ से बना कर ऐसे-ऐसे व्यंजन खिलायेगी कि आप अपनी उँगलियाँ चाट लेंगे। मुझे तो डर है कहीं पात्र ही न खा डालें।’’
‘‘अच्छा जी ! तब तो रसोइयों की छुट्टी कर देनी पड़ेगी।’’ रावण ने अचम्भित होने का अभिनय करते हुये कहा।
‘‘ऐसा क्यों ? क्या लंका का राज्य इतना कृपण है कि कुछ रसोइयों का मानदेय बचाकर अपना कोष भरना चाहता है ? मंदोदरी मात्र अपने लंकेश्वर के लिये व्यंजन बनायेगी। बाकी सबके लिये तो रसोइयों को ही बनाना पड़ेगा।’’ मंदोदरी ने इठलाते हुये कहा।
‘‘चलिये, जैसी आपकी इच्छा। रावण तो अपने भाग्य पर मुग्ध है। पहले लंका का राज्य मिला और फिर उससे भी अधिक महत्वपूर्ण आप मिल गयीं। किस मुँह से वह आभार व्यक्त करे विधाता का !’’
‘‘जी हाँ ! विधाता का आभार तो व्यक्त करना ही चाहिये। किन्तु अकेले अपने भाग्य पर अधिक मत इतराइये। कम भाग्यशालिनी मन्दोदरी भी नहीं है। उसने भी सर्वगुण सम्पन्न पति पाया है, लंकेश्वर के रूप में।’’
‘‘नहीं महारानी ! अधिक भाग्यशाली तो रावण ही है। कुछ काल पूर्व तक रावण एक विद्या-व्यसनी वटुक मात्र था और आज वह लंका का सम्राट् है और सर्वगुण सम्पन्न मन्दोदरी जैसी महारानी का चरण सेवक है।’’
‘‘अच्छा तो महाराज मेरे चरण-सेवक हैं। ऐसा गजब मत कीजिये, मन्दोदरी के भाव बढ़ जायेंगे।’’
‘‘तो फिर क्या करूँ ?’’
‘‘यह भी क्या बताना पड़ेगा ? हाय ! लाज नहीं आयेगी मन्दोदरी को ?’’ कहते हुये मन्दोदरी ने रावण के वक्ष में मुँह छिपा लिया।

-25-

‘‘मंगला का गुरुकुल का सपना पूरा नहीं हो पाया था। थोड़े दिन वह मचलती रही और पिता उसे बहलाते रहे। फिर घर में उसके बड़े भाई के विवाह का प्रसंग चल गया, वह आखिर 22 से ऊपर का हो गया था। घर में एक बहू आ जाये तो फिर मंगला के लिये भी लड़का देखा जाये। कितनी तेजी बढ़ती हैं ये लड़कियाँ भी। अभी से ताड़ सी हुई जा रही है।
मंगला को पिता के इन खयालों का सपने में भी भान नहीं था वह तो प्यारी सी भाभी की कल्पनाओं में डूबी हुई थी। इन कल्पनाओं में वह कुछ काल के लिये गुरुकुल को भी भूल गयी थी।
फिर एक दिन धूमधाम से भाभी आ गयी। सुंदर-सलोनी सी सोलह साल की गुड़िया। पूरे पन्द्रह दिन चला विवाह का कार्यक्रम। इतने दिन घर के पुरुषों का घर के भीतर प्रवेश पूरी तरह वर्जित रहा। वैसे भी कौन सा वे घर के भीतर जाते थे। भोजन के लिये चैके में जाने के अतिरिक्त पुरुष वर्ग सामान्यतः बाहर के हिस्से में ही रहता था। कोई कार्य हुआ वहीं से पड़े-पड़े पुकार लगा दी। माँ या मंगला दौड़ कर उनकी सेवा में उपस्थित हो जाते थे।
नई बहू को घर का सदस्य बनते-बनते दो साल गुजर गये। इतने दिन तो वह फिर आई, फिर मायके गई। फिर आई फिर मायके गई यही चलता रहा। पर इस आई-गई के बीच भी मंगला ने ढेर सारी मन की बातें कर डालीं थीं अपनी भाभी से। जैसे वह गुरुकुल गई कि नहीं ? नहीं गई तो क्यों नहीं ? उसे गायत्री मंत्र आता है ? भाभी बेचारी के पास उसके हर सवाल का जवाब नहीं या पता नहीं इतना ही होता था। इससे मंगला को संतोष नहीं होता था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि भाभी मूर्खा है या उससे बात ही नहीं करना चाहती। लेकिन फिर भी भाभी उसे अच्छी लगती थी।
इस बार जब भाभी आई तो टिक कर रही। पर मंगला को इस बार वह कुछ अलग सी लगने लगी थी। जब आई थी तब वह हमेशा जैसी ही थी पर दूसरी रात के बात से वह बदल गई थी। उसकी मुस्कुराहट बदल गई थी। अब वह बार-बार वह मंगला के यहाँ-वहाँ चुटकी काट लेती थी। जब मंगला प्रतिरोध करती तो कहती हाँ ‘हमारा चुटकी काटना तो खराब लगेगा ही, दूल्हे से खूब मन से कटवाना।’ मंगला को उसकी इस तरह की बातें समझ में नहीं आती थीं। फिर भी भाभी उसे अच्छी लगती थी। उसके आने से मंगला के काफी सारे काम कम हो गये थे। पर भाभी घर के पुरुषों के सामने तो आँगन में भी नहीं आती थी। हमेशा लम्बे से घूँघट में रहती थी जैसे दादी के सामने अम्मा रहती थीं। उसकी दादी-दादा को भगवान ने जल्दी ही बुला लिया था अपने पास। वह बहुत छोटी थी तभी। उसकी तमाम सहेलियों के दादी-दादा तो अभी भी हैं। पता नहीं क्यों उसके दादा-दादी को ही बुलाने की भगवान को इतनी जल्दी क्यों थी। उसे थोड़ी-थोड़ी याद है अपने बचपन की - वे दोनों उसे खूब प्यार करते थे, उसे ढेर सारी कहानियाँ सुनाते थे, उसकी प्रत्येक इच्छा पूरी करते थे। उनके सामने उसे गुरुकुल और पढ़ाई के बारे में ज्ञान ही नहीं था, नहीं तो उन्हीं से कहती और वे अन्य बातों के समान ही तुरंत उसकी यह बात भी मान लेते। उनके सामने बाबा भी कुछ नहीं कहा पाते।
एक दिन उसने भाभी से फिर पूछा -
‘‘भाभी तुम गुरुगुल गई हो ?’’
‘‘नहीं ! लेकिन तुझे गुरुकुल का इतना चाव क्यों है - कोई लड़का है क्या वहाँ ?’’ भाभी ने उसके गालों पर चुटकी भरते हुये जवाब में दूसरा सवाल जड़ दिया।
‘‘बस तुम्हारी यही बात मुझे अच्छी नहीं लगती। जब देखो नोचती रहती हो। सीधे बात ही नहीं कर पातीं। जाओ नहीं पूछना हमें कुछ।’’
‘‘अरे ! मेरी बन्नो तो नाराज हो गयी। अच्छा चलो नहीं नोचेंगे अब।’’
‘‘फिर बन्नो कहा। मैं बन्नो नहीं हूँ।’’ मंगला का मुँह फूल गया था - ‘‘सीधे से नाम भी नहीं ले सकतीं। जाने क्या हो गया है इस बार तुम्हें। भइया से शिकायत करनी पड़ेगी।’’
‘‘अच्छा लो कान पकड़ते हैं, अब न नोचेंगे न तुम्हें बन्नो कहेंगे। तुम्हारे भइया की कसम !’’
‘‘झूठी कहीं की। मेरे भइया की क्या जान लेनी है, अपने भइया की खाओ झूठी कसम।’’
‘‘अच्छा हमारे भइया की कसम, अब खुश !’’ भाभी मंगला से लिपट गयी। ‘‘हम तो सहेलियाँ हैं, नहीं ? सहेलियों से कहीं नाराज हुआ जाता है ? लो हमने कान पकड़ लिये, अब माफ कर दो।’’
भाभी की अदा पर मंगला को हँसी आ गयी। गुस्सा पिघल कर बह गया।
‘‘तो सीधे से बताओ - गुरुकुल गई हो कि नहीं।’’
‘‘नहीं ! लड़कियाँ कहीं गुरुकुल जाती हैं ! वे तो घर पर ही पढ़ लेती हैं थोड़ा-बहुत।’’ भाभी ने फिर उसीसे सवाल कर दिया - ‘‘तुम गई हो क्या ?’’
‘‘नहीं ! मैं भी नहीं गई। लेकिन मन बहुत है वहाँ जाने का, पढ़ने का।’’
‘‘लेकिन यह कभी नहीं होगा। हमने तो अभी तक किसी औरत जात को गुरुकुल जाते देखा नहीं।’’
‘‘अच्छा भाभी औरतजात पढ़ क्यों नहीं सकती ?’’
‘‘क्योंकि भगवान ने ऐसा कहा है ?’’
‘‘भगवान ऐसा क्यों कहेंगे भला ?’’
‘‘अब यह तो बाबा से ही पूछना, मुझे भला कैसे मालूम हो। मैं भी तो बेपढ़ी हूँ।’’
‘‘पर मुझसे बड़ी तो हो।’’
‘‘पढ़ाई की बातें बड़े होने से थोड़े ही मालूम होती हैं। वे तो पढ़ने से ही मालूम होती हैं और पढ़ना मुझे आता नहीं।’’
‘‘फिर किससे पूछें ? बाबा बतायेंगे कुछ ? उन्हें तो अपने व्यापार के अलावा कुछ पता ही नहीं रहता। जब देखो दुकान की ही गणित लगाते रहते हैं।’’
‘‘तो फिर सोचो, किससे पूछोगी !’’
‘‘अबकी वेद भइया आयेंगे तो उनसे पूछूँगी। उन्हें सब पता होगा।’’
‘‘हाँ तुम्हारे वेद भइया को तो अवश्य ही पता होगा। वे तो इतने दिनांे से गुरुकुल में पढ़ रहे हैं।’’
‘‘तो यही पक्का रहा। वेद भइया अगर बताने में ना-नुकुर करें तो तुम मेरा साथ देना। वे भी तो घर आने पर अपने मित्रों में ही व्यस्त हो जाते हैं। और किसी की तो उन्हें सुधि रहती ही नहीं।’’
‘‘अरे पक्का मेरी बन्नो।’’ कहती हुई भाभी ने फिर उसके गाल में चुटकी काट ली।
‘‘फिर वही ! तुम भी ना भाभी, सुधर नहीं सकतीं।’’ मंगला बोली, पर इस बार स्वर में नाराजी नहीं थी। उसे अपने प्रश्न का उत्तर पाने का मार्ग जो मिल गया था और भाभी ने उसका सहयोग करने का आश्वासन भी दे दिया था। वह इससे प्रसन्न थी। इस प्रसन्नता के बदले भाभी की इतनी सी उद्दंडता क्षमा की जा सकती थी।
अब ‘वेद’ भइया की प्रतीक्षा आरंभ हो गयी थी। साल में दो बार ही आना होता था उनका। दोनों नवरात्रों पर। अभी शारदीय नवरात्र आने में बहुत दिन बाकी थे।


क्रमशः

मौलिक एवं अप्रकाशित

- सुलभ अग्निहोत्री

Views: 518

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . . विविध
"आदरणीय जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय । हो सकता आपको लगता है मगर मैं अपने भाव…"
18 minutes ago
Chetan Prakash commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . . विविध
"अच्छे कहे जा सकते हैं, दोहे.किन्तु, पहला दोहा, अर्थ- भाव के साथ ही अन्याय कर रहा है।"
2 hours ago
Aazi Tamaam posted a blog post

तरही ग़ज़ल: इस 'अदालत में ये क़ातिल सच ही फ़रमावेंगे क्या

२१२२ २१२२ २१२२ २१२इस 'अदालत में ये क़ातिल सच ही फ़रमावेंगे क्यावैसे भी इस गुफ़्तगू से ज़ख़्म भर…See More
14 hours ago
सुरेश कुमार 'कल्याण' commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"परम् आदरणीय सौरभ पांडे जी सदर प्रणाम! आपका मार्गदर्शन मेरे लिए संजीवनी समान है। हार्दिक आभार।"
yesterday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . . . विविध

दोहा सप्तक. . . . विविधमुश्किल है पहचानना, जीवन के सोपान ।मंजिल हर सोपान की, केवल है  अवसान…See More
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"ऐसी कविताओं के लिए लघु कविता की संज्ञा पहली बार सुन रहा हूँ। अलबत्ता विभिन्न नामों से ऐसी कविताएँ…"
yesterday
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

छन्न पकैया (सार छंद)

छन्न पकैया (सार छंद)-----------------------------छन्न पकैया - छन्न पकैया, तीन रंग का झंडा।लहराता अब…See More
yesterday
Aazi Tamaam commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के
"आदरणीय सुधार कर दिया गया है "
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"आ. भाई सुरेश जी, सादर अभिवादन। बहुत भावपूर्ण कविता हुई है। हार्दिक बधाई।"
Monday
Aazi Tamaam posted a blog post

ग़ज़ल: चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के

२२ २२ २२ २२ २२ २चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल केहो जाएँ आसान रास्ते मंज़िल केहर पल अपना जिगर जलाना…See More
Monday
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

गहरी दरारें (लघु कविता)

गहरी दरारें (लघु कविता)********************जैसे किसी तालाब कासारा जल सूखकरतलहटी में फट गई हों गहरी…See More
Monday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

शेष रखने कुटी हम तुले रात भर -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

212/212/212/212 **** केश जब तब घटा के खुले रात भर ठोस पत्थर  हुए   बुलबुले  रात भर।। * देख…See More
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service