कल से आगे ........
सुमाली और वज्रमुष्टि आज दक्षिण की ओर भ्रमण पर निकल पड़े थे। सुमाली अपने विशेष अभियानों में अधिकांशतः वज्रमुष्टि को ही अपने साथ लेकर निकलता था। वह उसके पुत्रों और भ्रातृजों में सबसे बड़ा भी था और उसकी सोच भी सुमाली से मिलती थी।
तीव्र अश्वों पर भी दक्षिण समुद्र तट तक पहुँचने में पूरा दिन लग गया था। इन लोगों ने मुँह अँधेरे यात्रा आरंभ की थी और अब दिन ढलने के करीब था। रावण प्रहस्त से सर्वाधिक संतुष्ट था इसलिये वह सदैव उसी के साथ रहता था। अक्सर वज्रबाहु भी उनके ही साथ रहता था। कुंभकर्ण ने कोई भी जिम्मेवारी लेने से साफ मना कर दिया था। उसे मदिरा की लत लग गयी थी। वह बस जी भर के मदिरा पान कर मस्त लेटा रहता था। जब तंद्रा टूटती तो खींच कर भोजन करता और फिर मदिरा चढ़ा लेता। चैतन्य अवस्था में उसके दर्शन संभवतः भूमंडल पर सर्वाधिक दुर्लभ उपलब्धि थी।
विभीषण सदैव की भाँति यज्ञ, पूजा आदि मंे व्यस्त रहा करता था। उस पर पिता का प्रभाव रावण और कुंभकर्ण की अपेक्षा बहुत अधिक था। स्वाभाविक भी था, रावण और कुंभकर्ण को तो कैकसी उनके समझदार होने से पूर्व ही सुमाली को सौंप गयी थी, वही अधिक काल तक पिता के साथ रहा था। इधर सुमाली ने भी उसे अपने प्रभाव में लेने का अधिक प्रयास नहीं किया था। उसे दुर्धर्ष योद्धाओं की आवश्यकता थी यज्ञ विशारदों की नहीं। उसे रावण को त्रिलोक विजयी बनाना था, उसके पिता के समान पंडित नहीं। किंतु उसे अभी पता नहीं था कि वह कितनी बड़ी भूल कर रहा था। विधाता सृष्टि को अपनी इच्छानुसार संचालित करता है, संभवतः इसीलिये वह बड़े से बड़े कूटनीतिज्ञों से भी कहीं न कहीं भूल करवा ही देता है।
बहरहाल, हम अपनी कथा की ओर वापस लौटते हैं -
‘‘पितृव्य ! लंका का यह दक्षिणी सिरा तो अभी भी बहुत पिछड़ा हुआ है। यह तो लगता ही नहीं कि उसी समृद्धिशाली लंका का भाग हो।’’ वजृमुष्टि ने मार्ग के दोनों ओर दूर-दूर तक फैले बीहड़ क्षेत्र पर निगाह डालते हुये कहा। कहीं कोई सुव्यवस्थित मार्ग ही नहीं है। अधिकांश क्षेत्र में तो पगडंडी तक नहीं है। कोई भी बड़ी सहजता से मार्ग से भटक सकता है। आप साथ न होते तो मैं भी निश्चय ही भटक जाता।’’
‘‘हाँ पुत्र ! कुबेर का सारा व्यापार पूर्व और पश्चिम के बंदरगाहों से ही होता था। वे क्षेत्र त्रिकूट से निकट पड़ते हैं। संभवतः इसी कारण यह भाग उपेक्षा का शिकार रहा।’’
‘‘यदि इन सारे बीहड़ों को चैरस करा दिया जाये तो कितनी अधिक कृषि योग्य भूमि निकल सकती है, नहीं ?’’
‘‘निस्संदेह निकल सकती है। किंतु अधिक कृषि भूमि की हमें आवश्यकता नहीं है। लंका में पर्याप्त मात्रा में खाद्यान्न उत्पन्न होता है।’’
‘‘अधिक खाद्यान्न का हम निर्यात भी तो कर सकते हैं ?’’
‘‘कर सकते हैं किंतु क्या वह पर्याप्त लाभकारी होगा ? यह सारा क्षेत्र इतना बंजर और ऊबड़-खाबड़ है कि इसे समतल कराना आसान नहीं होगा। फिर स्थान-स्थान पर पर्वतीय क्षेत्र भी हैं। उन्हें कैसे समतल कराओगे ? और यदि उन्हें छोड़ दोगे तो भूमि ही कितनी प्राप्त होगी ?’’
वज्रमुष्टि कुछ देर सोचता रहा फिर बोला - ‘‘किसी सीमा तक आप ठीक ही कह रहे हैं, विशेष लाभकारी तो नहीं होगा किंतु हानि भी नहीं देगा।’’
‘‘सो तो नहीं देगा किंतु इतने कृषक कहाँ से लाओगे यहाँ पर खेती करने के लिये ? जब कृषक ही नहीं हैं तो कृषि भूमि की आवश्यकता ही क्या है !
‘‘हाँ ! यह तो प्रश्न है। लंका में कोई व्यक्ति खाली तो नहीं है। सब व्यवसाय में लगे हैं।’’
‘‘फिर इसके लिये कितने सारे श्रमिकों की आवश्यकता होगी, वे भी कहाँ से आयेंगे। लंका को अभी सैनिकों की अधिक आवश्यकता है, कृषकों और श्रमिकों की नहीं। निकट भविष्य में हमें अनेक युद्ध करने होंगे।’’
‘‘यह भी सत्य है पितृव्य ! मैंने इस दृष्टि से तो सोचा ही नहीं था।’’
‘‘पुत्र ! यदि राज्य का संचालन उचित प्रकार से करना है तो किसी एक बिन्दु पर नहीं समस्त बिन्दुओं पर दृष्टि रखनी पड़ती है। अपनी दृष्टि को विहंगम बनाओ तभी तुम स्वयं को प्रशासन के योग्य सिद्ध कर पाओगे।’’
‘‘जी ! प्रयास तो कर रहा हूँ।’’
‘‘मुझे पता है। मैं भी यही चाहता हूँ कि तुम समग्र रूप से योग्य बन सको इसीलिये सदैव अपने साथ रखता हूँ।
‘‘जी !’’
हम कुछ भूमि को अवश्य समतल करायेंगे और तत्पश्चात यहाँ लोगों को बसायेंगे भी। मार्गों को तो अवश्य ही ठीक करायेंगे ताकि सर्वत्र निर्बाध आवागमन संभव हो सके। किंतु शेष क्षेत्र पर इन वनों को ही उचित रीति से विकसित करेंगे। सारे क्षेत्र में छोटी-छोटी ग्रामीण बस्तियों का विकास करेंगे, वही इन वनों की सुरक्षा करेंगे और इनकी उपजों को संगलित भी करेंगे। अपार सम्पदा है इन वनों के पास। एक वृक्ष कई पीढ़ियों तक फल देता है और उसमें बहुत श्रम की भी आवश्यकता नहीं होती, मात्र जंगली जानवरों से सुरक्षा के।’’
सागर का किनारा अब दिखाई देने लगा था। किनारे पर कोई पचासेक घुड़सवार मौजूद थे। दूर से ही इन्हें देख कर उनमें से कुछ घुड़सवार इनकी ओर बढ़ चले थे। थोड़ी ही देर में वे इनके पास आ पहुँचे।
‘‘प्रणाम मातामह ! प्रणाम मंत्रिप्रवर !’’ उनमें से जो सबसे आगे था और वेशभूषा से ही उनका नायक प्रतीत होता था, ने घोड़े पर बैठे-बैठे ही अभिवादन किया।
सुमाली और वज्रमुष्टि दोनों ने सिर हिलाकर अभिवादन का उत्तर दिया और अपने अश्व भी उनके साथ कर दिये। तट पर पहुँच कर सुमाली दूर क्षितिज की ओर देखने लगा। सागर में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बड़ी-बड़ी सामरिक नौकायें तैर रही थीं। यहाँ से समझ नहीं आ रहा था किंतु सबमें सशस्त्र सैनिक पर्याप्त मात्रा में उपस्थित थे।
‘‘पितृव्य आज यहाँ कुछ अधिक चहल-पहल नहीं दिख रही ?’’ वज्रमुष्टि ने जिज्ञासा से पूछा।
सुमाली उसी प्रकार दूर क्षितिज में निगाह गड़ाये रहा। कोई भी उत्तर देने के स्थान पर बस मुस्कुरा दिया।
सागर की लहरें बार-बार घोड़ों को भिगो जाती थीं जिससे वे बार-बार हिनहिना कर अस्थिर होते थे और पूँछ फटकारते थे। पर इससे सुमाली की तन्मयता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। प्रमुख भी लगातार उसकी दृष्टि का अनुसरण कर रहा था।
‘‘वो देखा ! दिखाई पड़ने लगे। हम सही समय पर यहाँ पहुँच गये।’’ अचानक दक्षिण पूर्वी कोने की ओर हाथ फैलाकर सुमाली बोला।
‘‘जी मातामह, दिखाई पड़े।’’ प्रमुख ने भी उसकी बात का समर्थन किया।
‘‘कितने दिन में निकलते हैं ये पोत ?’’
‘‘मातामह प्रायः एक माह में एक बार अवश्य आते हैं। कभी-कभी बीच में भी आ जाते हैं।’’
‘‘तात्पर्य यह कि आज एक माह हो रहा है।’’
‘‘नहीं मातामह ! माह तो परसों पूर्ण होगा। किंतु आपको पूर्व में ही बुलवा लिया था। कई बार पोत समय से पूर्व भी आ जाते हैं।’’
‘‘चलो अच्छा ही रहा जो आज ही आ गये पोत अन्यथा प्रतीक्षा करनी पड़ती।’’
‘‘जी मातामह ! ऐसा लगता है जैसे पोत प्रतीक्षा ही कर रहे थे कि कब आप आयें और कब वे प्रकट हों।’’
‘‘कोई विशेष पोत हैं वे ?’’ वज्रमुष्टि ने पूछा जो उस कोने से समानान्तर कई विशाल पोतों के अग्रभाग ऊपर को उठते हुये देख रहा था किंतु वार्ता का विषय उसकी समझ में नहीं आ रहा था।
‘‘हाँ !’’ सुमाली ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया। फिर उसने नौसेना प्रमुख को आदेश दिया -
‘‘विश्वरथ ! उन सबको घेर कर तट पर ले आओ।’’
‘‘जी !’’ प्रमुख विश्वरथ सुमाली का विश्वासपात्र व्यक्ति था। उसने बिना कोई प्रश्न किये सागर में तैर रहे अपने सामरिक पोतों को तत्संबंधी आज्ञा प्रसारित करने लगा।
‘‘पिता ! ये तो कुबेर के व्यापारिक पोत लग रहे हैं, इन्हें क्यों पकड़वा रहे हैं ?’’ अब तक पोत पूरे दिखाई पड़ने लगे थे। वज्रमुष्टि ने उन्हें पहचानते हुये जिज्ञासा प्रकट की।
‘‘पुत्र ! दूर की सोचो। क्या हमें मात्र लंका तक ही सीमित रहना है ?’’
‘‘निस्संदेह नहीं ! हमें दिग्विजय करनी है।’’
‘‘तो दिग्विजय क्या ऐसे ही हो जायेगी ?’’
‘‘किंतु पिता ! दिग्विजय का इन पोतों को अनावश्यक पकड़ने से क्या संबंध है ?’’
‘‘संबंध है। रावण में मैंने कितना भी अपने संस्कार रोपित करने का प्रयास किया हो किंतु उसे जो अपने तपस्वी पितृकुल से मूल संस्कार प्राप्त हुये हैं, उनका क्या करोगे ?’’
‘‘मैं नहीं समझा !’’
‘‘दिग्विजय तभी तो करोगे, जब उसके लिये प्रस्थान करोगे। युद्ध के लिये उद्यत होगे। या यहीं लंका में बैठे-बैठे ही दिग्विजय हो जायेगी ?’’
‘‘प्रस्थान तो करना ही पड़ेगा।’’
‘‘क्या तुम्हें रावण में ऐसे कोई लक्षण दिखाई दे रहे हैं ?’’
‘‘अब समझा, रावण के पितृ कुल के संस्कारों का तात्पर्य !’’ वज्रमुष्टि ने किंचित हास्य के साथ कहा।
‘‘समझे तो यह भी समझो कि रावण को इसके लिये उत्तेजित करना होगा तभी वह इस विषय में सोचेगा।’’
‘‘पर मैं अब भी नहीं समझा कि उसका इन पोतों से क्या संबंध है ?’’
‘‘कैसे सम्हालोगे लंका के सेनापति का पद, यदि ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें करोगे ?’’ सुमाली अब झुंझला उठा था।
‘‘किंतु पितृव्य आप समझायेंगे तभी तो समझूँगा।’’ सुमाली के झुंझलाने पर भी वज्रमुष्टि ने संयम नहीं खोया था।
‘‘तुम्हें नहीं लगता कि यह दिग्विजय अभियान आरंभ करने के लिये सर्वोत्तम निशाना कुबेर ही हो सकता है। वह जितना सम्पन्न है रणक्षेत्र में उतना ही कमजोर साबित होगा। व्यापारी कभी बहुत अच्छा योद्धा साबित नहीं हो सकता। अभी तो हमने शक्ति जुटाना आरंभ ही किया है, अभी हम यम या इंद्र पर आक्रमण तो नहीं कर सकते। वे हमें एक झटके में मसल देंगे।’’
‘‘सत्य है !’’
‘‘और रावण ने अभी तक कोई युद्ध नहीं किया है। युद्ध के आनंद का स्वाद अभी उसने चखा ही कहाँ है ! उसे यह स्वाद चखाना होगा। उसकी तपस्वी मनोदशा को युद्धाकांक्षी और रक्त पिपासु योद्धा की मनोदशा में बदलना होगा। वह शस्त्र संचालन में पारंगत है, ब्रह्मा की कृपा से वह दिव्यास्त्रों के संचालन में भी दक्ष है किंतु उसकी आत्मा तो योद्धा वाली नहीं है। उसकी आत्मा को भी तो युद्धोन्मादी योद्धा के रूप में प्रशिक्षित करना होगा।’’
‘‘और इस प्रशिक्षण के लिये कुबेर से मुलायम चारा और हो ही क्या सकता है !’’ वज्रमुष्टि की समझ में अब सुमाली की रणनीति आने लगी थी।
‘‘रावण को हम यूँ ही अकारण तो कुबेर से युद्ध के लिये उकसा नहीं सकते। कोई कारण भी तो खड़ा करना पड़ेगा, अन्यथा वह अपने ही भाई के विरुद्ध युद्धरत कैसे होगा ? वह भी उस भाई के प्रति जो बिना कोई बखेड़ा खड़ा किये लंका उसे सौंप कर चला गया हो।’’
‘‘इन व्यापारिक पोतों को पकड़ने से कैसे कारण खड़ा हो जायेगा ?’’
‘‘इससे कुबेर उत्तेजित होगा। उत्तेजित होगा तो प्रतिरोध करेगा।’’
‘‘पर सारी बात जान कर रावण हमसे कुपित नहीं होगा।’’
‘‘उसे सारी बात बतायेगा कौन ? मैं तो उसे सारी बात अपने ही तरीके से बताऊँगा जिससे वह कुबेर पर और भी क्रोधित हो उठे।’’ सुमाली कुटिल मुस्कुराहट के साथ बोला। ‘‘किंतु ध्यान रखना तुम्हें कुछ भी नहीं पता। रावण कुछ भी पूछे तुम्हें अनभिज्ञता ही प्रकट करनी है। इस संबंध में जो भी बात करूँगा मैं ही करूँगा। जब उचित समझूँगा तब करूँगा। समझ गये ?’’ सुमाली ने अन्दर तक भेदने वाली दृष्टि से वज्रमुष्टि को देखते हुये कहा।
‘‘जी ! किंतु यदि उसने विश्वरथ से पूछ लिया तो ?’’
‘‘तुम्हें क्या लगता है सम्राट् एक अदना से सैन्य अधिकारी से बात करेगा ? वह इस सब के प्रभारी व्यक्ति से बात करेगा जो कि मैं हूँ। मैं सुमाली उसका मातामह !’’
क्रमशः
मौलिक एवं अप्रकाशित
- सुलभ अग्निहोत्री
Comment
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी ! आपको अच्छा लगा यही मेरे लिये पर्याप्त है।
सर इन संवादों से उस दौरान का चित्र सामने आता है | हर दौर की अपनी समस्याएं रहेती है | राजनीती , कूटनीति , राज्य के हाल चाल वाह सुंदर वर्णन यह भी हुआ है | रामायण को संवाद के जरिये इस तरह से प्रस्तुत करना वाह | प्रणाम मान्यवर |
आदरणीय सुलभ भाई , पढ़ के बहुत अच्छा लगा , मै बहुत कुछ नही जानता पर संवाद बहुत अच्छा लगा , वज़्रमुष्टि और सुमाली के बीच । हार्दिक बधाई आपको ।
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