3 मुक्तक …
१.
ऐ खुदा मुझ को बता कैसा तेरा दस्तूर है
तुझसे मिलने के लिए बंदा तेरा मजबूर है
जब तलक रहती हैं सांसें दूरियां मिटती नहीं
नूर हो के रूह का तू क्यूँ उसकी रूह से दूर है
२.
हिसाब तो साथ ज़िंदगी के पूरा हुआ करता है
साँसों के बाद ज़िस्म फिर धुंआ हुआ करता है
टुकड़ों में बिखर जाता है हर पन्ना ज़िन्दगी का
ज़मीं का बशर फिर आसमाँ का हुआ करता है
३.
हम परिंदों को खुदा से बन्दगी नहीं आती
कैदे-कफ़स में जीनी ज़िन्दगी नहीं आती
पर काट के परवाज़ का हौसला न आजमा
हम परिंदों को इन्सां सी दरिंदगी नहीं आती
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी रचना पर आपकी आत्मीय अभिव्यक्ति का हार्दिक आभार
सरना जी
बहुत ही सुन्दर मुक्तक है ----
पर काट के परवाज़ का हौसला न आजमा
हम परिंदों को इन्सां सी दरिंदगी नहीं आती
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