विकसित होकर हम ने कैसी ये तस्वीर उकेरी है
आदमयुग थी यार न दुनिया जितनी आज अँधेरी है।१।
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बारूदों की जिस ढेरी पर नफरत आग लिए बैठी
उससे सब कुछ ध्वंस में बोलो लगनी कितनी देरी है।२।
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जिसको देखो वही चोट को लाठी लेकर डोल रहा
कहने को पर सब के मन में सुनते पीर घनेरी है।३।
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मजहब पन्थों के हित में तो नारे खूब लगे हैं नित
मानवता के हित में लेकिन बजती कब रणभेरी है।४।
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उन रस्तों को सदियाँ भी अब साफ नहीं कर पायेंगी
जिन पर तुम ने धुन्ध खूँ भरी आकर खूब बिखेरी है।५।
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मौलिक.अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई सुरेश जी, सादर आभार।
आदरणीय लक्ष्मण धामी साहब बहुत सुंदर। बधाई
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति व प्रशंसा के लिए आभार ।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है,बधाई स्वीकार करें ।
आ. भाई आशुतोष जी, सादर अभिवादन। गजल की सराहना के लिए धन्यवाद।
आ. भाई विजय निकोर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति स्नेह व सराहना के लिए आभार।
बेहतरीन
बहुत ही अच्छी लिखी है गज़ल आपने, मेरे मित्र लक्ष्मण जी। बधाई।
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