कब कहता हूँ आम आदमी मुझको अपने पैसे दे
हो सकता है तुझ से कुछ तो क़ुर्बानी में रिश्ते दे।१।
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दिल्ली जलती है जलने दे मुझे सियासत करने दे
हर नेता का ये कहना है कुछ तो कुर्सी फलने दे।२।
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ये लाशों के ढेर हमेशा सीढ़ी बन कर उभरे हैं
इनको मत रो इन पर मुझको पद की खातिर चढ़ने दे।३।
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खूब सुरक्षा मुझे 'कैट' की मुझ तक आग न आयेगी
जलकर इसमें शाम किसी की ढलती है तो ढलने दे।४।
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कोई गौतम कोई अनवर मेरे काम ही आया है
देश भक्ति के नाम इन्हें भी अर्पण कुछ तो करने दे।५।
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साँस इसी से राजनीति की सफल तरीके चलती है
विष पूरित इन पवनों को आजाद हमेशा बहने दे।६।
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मौलिक.अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
'दिल्ली जलती है जलने दे मुझे सियासत करने दे
हो सकता है तुझ से कुछ तो कुर्वानी में अपने दे'
नहीं,इसमें 'ऐ' के क़वाफ़ी लेना होंगे,अच्छे दे,पैसे दे,वग़ैरह ।
आ. भाई समर कबीर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और उत्साह वर्धन के लिए आभार ।
क्या मतले को इस प्रकार करने से कवाफी ठीक हो सकती है , मार्गदर्शन कीजिए ..
दिल्ली जलती है जलने दे मुझे सियासत करने दे
हो सकता है तुझ से कुछ तो कुर्वानी में अपने दे।।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,लेकिन क़वाफ़ी दुरुस्त नहीं हैं,ग़ौर करें ।
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