समय :
न जाने किस अँधेरे की जेब में
सिमट जाता है समय
न जाने कब उजालों के शिखर पर
कहकहे लगाता है समय
अंतहीन होती है समय की सड़क
बिना पैरों का ये पथिक
अपने काँधों पर ढोता है सदा
कल, आज और कल की परतों में
साँस लेते लम्हों की अनगिनित दास्तानें
और नुकीली सुईयों के पाँव के नीचे रौंदे गए
आफ़ताबी अरमानों के बेनूर आसमान
क्षणों की माल धारण किये
उन्नत भाल का ये आहटहीन अश्व
सृष्टि चक्र का वो वाहक है
जो आसमान से रंग चुराकर
इंसानी नसीब को उसका
आसमान देता है
ये अथक पथिक आदि-अंत का
मोहताज़ नहीं क्योँकि
ये समय है
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब सृजन को अपनी आत्मीय प्रशंसा से अलंकृत करने का दिल से आभार।
जनाब सुशील सरना जी आदाब,अच्छी रचना हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
आदo कंवर करतार जी सृजन पर आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभार।
सरना जी , समय पर बहुत सार गर्भित रचना प्रस्तुत की है I बधाई I
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