न सीखी होशियारी
सर्वसामान्य का संवाग रचाते
मानव में है मानो चिरकाल से
उथल-पुथल गहरी भीतर
पग-पग पर टकराहट बाहर
आदर्श, व्यवहार और विवेक में
असामंजस्य
तीव्रतम संघर्ष
इस परिप्रेक्ष्य में कैसे है सम्भव
वर्तमान स्थिति का
संस्कृति का
सही मूल्यांकन करना
हैरान हूँ कि इस पर भी कैसे
कर लेते हैं लोग दिखावा
संपूर्णता का
एकसूत्रता का
सुना है कि इसमें भी है एक विशेष
कलात्मकता
कुछ कह देते हैं इसको
प्रगतिशीलता
और दे देते हैं कोई नाम इसे
राजनीति का
आत्मकेन्द्रीय और अहंकारी
टेढ़ी-मेढ़ी बिखरी फैली
खण्ड-खण्ड हुई सामाजिकता
व्यक्तित्वहीनता में भी ऐसे में
चोरी और झूठ पकड़े जाने पर भी
ढो लेते हैं कंधे पर
भ्रम ईमानदारी का
सौन्द्रय का
अनमनी झंकार में कैसे भी
आन्तरिक विरोध को सुलझाते
ऐसे "सर्वसामान्य" की स्वीकृति करते
करता हूँ प्रयत्न कि देखूँ चारों ओर
मानवता
करूँ वर्तमान में सौन्द्रय की अनुभूति
जीवन्तता का सरल आभास
करता रहा मैं ऐसे ही अकुंठित विश्वास
हर किसी के कहे में बार-बार
लौट-लौट आती है अनन्य अनुभूति
कढ़वी वास्तविक्ता की
पिघल-पिघल उठता है ऐसे में अकस्मात
बार-बार ठगे जाने का भान
लज्जा से झुक जाता है मस्तक
सोच-सोच कि यह कैसी ममता थी
क्यूँ सहे मैंने वर्षों तक आत्मीयों के आघात
लगता है कि मैं रहा बालक अभी तक
भीड़ में अकेला
गूँजता है, ठहर जाता है स्मृति-पटल पर
बचपन में सुना एक प्रिय गीत पुराना ...
"सब कुछ सीखा हमने, न सीखी होशियारी
सच है दुनिया वालो, कि हम हैं अनाड़ी " *
बहुत दुखता है मन !
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-- विजय निकोर
* यह गीत चल-चित्र "अनाड़ी" से
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आपका हार्दिक आभार, आदरणीय मित्र लक्ष्मण जी।
आ. भाई विजय निकोर जी, सादर अभिवादन । उत्तम रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
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