आत्मावलंबन
बाहरी दबाव और आंतरिक आदर्श
असीम उलझन और तीव्रतम संघर्ष
ऐसा भी तो होता है कभी
कि मन का सारा संघर्ष मानो
किसी एक बिंदु पर केंद्रित हो उठा हो
और पीड़ा ... जहाँ कहीं से भी उभरी
सारी की सारी द्रवित हो कर
उस एक बिंदु के इर्द-गिर्द
ठहर-सी गई हो
बह कर कहीं और चले जाने का
उस पीड़ा का
कोई साधन न हो
वाष्प-सा उसका उड़ जाना तो असंभव
विवेक से उसको सुलभ कर सकना
मन के लिए यह भी हो असाध्य
यह भी संभव न हो
बुद्धि और हृदय की ऐसी
आपसी राढ़ में इस बीच
कभी परस्पर सामंजस्य, कभी हल खोजते
हर दिन मेरे लिए मानो एक वत्सर हो लम्बा
समय हो जाता है कुछ भारी इतना
बारिश के बाद भीगे पत्तों के भार से जैसे
पेड़ पर हर डाल कुछ और झुक जाती है
बिना अपनी किसी गलती के
ऐसे में मन कुछ और विनम्र
और भावाकुल
संसार के सामने सिर अपना
और झुक जाता है
पहले भी जाने कई बार कब-कब
ऐसी असमर्थता से गुज़र चुका हूँ मैं
न जाने क्यूँ यह कैसी कुछ अजीब
कशमकश है आज
एक और नई ठोकर के बाद
टुकड़े-टुकड़े हो कर
लगता है मैं आज चुक चुका हूँ
ऐसे में मुझमें अब
किसी नई चाह को परखने की
प्रवृति बाकी नहीं है
पर यह भी जानता है यह मन
कोई भी मनोस्थिति आज की ही है
मौसम बदलेगा, नए अंकुर फूटेंगे
चेतना में मुझको विश्वास है इतना
गिर कर संभल जाने में ही
है सार्थकता और सम्मान
भीतर कहीं यही संबल अभी भी है
विधाता के आशीर्वाद से
इस इकाई में अभी भी बल है बहुत
समस्या कितनी ही भारी हो
उसका समाधान
पलायन नहीं है
व्यक्तित्व की अमर
सौन्दर्य-अनुभूति है
अपने दायित्व को अंगीकार करते
अपने प्रकृत रूप में निखर उठते
हर दुविधा और विषमता के
कितना भी बढ़ जाने पर
मैं ईमानदारी से
अपने स्वावलंबन में
विश्वास दुहरा देता हूँ
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, प्रिय मित्र सुरेन्द्र जी।
आद0 विजय निकोर जी सादर अभिवादन। बढ़िया भाव परक और विचारोत्तेजक रचना पर हृदयतल से बधाई स्वीकार कीजिये। सादर
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, प्रिय मित्र छोटेलाल सिंह जी।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, प्रिय मित्र लक्ष्मण जी।
आदरणीय विजय निकोर साहब सादर अभिवादन बहुत ही सारगर्भित और मार्मिक रचना का सृजन किया आपने बहुत बहुत बधाई
आ. भाई विजय निकोर जी, सादर अभिवादन । एक अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
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