चेतना का द्वार
उठते ही सवेरे-सवेरे
चिड़ियों की चहचहाट नहीं
आकुल क्रन्दन... चंय-चंय-चंय
शायद किसी चिड़िया का बीमार बच्चा
साँसे गिनता घोंसले से नीचे गिरा था
वह तड़पा, काँपा
कुछ देर और जीने का जैसे क्रज़ लिया
उसके टूटते प्राणों से मैंने कुछ सीखा
किसी भी और दिन के समान
पूरब से आ गई प्रभात की धूप
खिलकर छा गई आँगन में
संवारती पेड़ों पर डालों के पत्तों को
निज क्रीड़ा में रत, झुक गई पल भर
चिड़िया के कांपते दम तोड़ते उस बच्चे पर
कि जैसे दे दी उसको कुछ उष्मा
फिर चलती बनी वह अपनी राह पर
उस चलती-बनी सहज-सरल धूप से मैंने
कुछ सीखा
छलक उठा उर का सागर, मैं बैठा सोचता
ऐसे में क्या, मैं कुछ कर सकता हूँ क्या ?
कोने में सूखी पड़ी थी कुछ घास
सोचती खुद को ”बेकार’
आज वह कुछ काम आ गई
उस घास को हथेली पर रखे
मैंने चिड़िया के बच्चे पर जैसे
डाल दी आखरी चादर
उस सूखी घास से
उस आख़री चादर से
मैंने कुछ सीखा
जाने कौओं को किसने बताया
कौन कह आया उनको कि पड़ा है यहाँ
चिड़िया का मृत बच्चा
उड़ते चले आए काँएं-काँएं करते
उनमें एक था बड़ा-सा काला कौआ
मैं कुछ डरा, वह न डरा मुझसे
मारा झपटा, चौंच में दबाए बच्चा
उड़ चला वह काला कौआ अपनी दिशा
उस काले कौए से भी मैंने
बहुत-कुछ सीखा ...
कि जैसे अचानक अकेले अन्धकार में
आई कोई रौशनी की किरण
मैंने ऐसे कोई नया सत्य पहचाना
गिनते बजरी-के-पत्थर हथेली में
कुछ गिरते पड़ते, मैंने उनसे कुछ जाना
खुल गया मानो चलते, चेतना का द्वार
कुछ कड़वा, कुछ मीठा है सँसार
सीखा, बहुत सीखा सबसे मैंने
न जाना फिर भी क्या होता है
"साँसारिक व्यवहार"
ग्लानि, कड़वाहट, अजीब विवशता का भान
मैं इस कोलाहल में खिंचकर क्यूँ आया
मेरी सन्तप्त साँसो ने किस नशे में, बेहोश
क्या खोया, क्या पाया
यह सोचते, काँप उठी जैसे चकित चेतना भी
उमड़ आई कुछ अनमनी उदासी
अनुभवों से बहता गीलापन
आँगन में देखा आज यह कैसा मरण-जीवन
हुआ विवेक, आदर्श और हृदय का जैसे पहला संगम
फिर क्यूँ रूक-रूक जाती है मेरी मुसाफ़िरी धड़कन
पलते रहे हैं मुझमें क्यूँ कब से कितने प्रश्न पुराने ...
इस सँसार में रहते
इनसानी पापों से क्यूँ न सीखा मैंने
अनिवार्य है जो जीने के लिए
साँसारिक शतरंज का खेल ?
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आपने रचना को सराहा, आपका हार्दिक आभार, मित्र सुरेन्द्र जी।
आपने रचना को सराहा, आपका हार्दिक आभार,मित्र लक्ष्मण जी।
आद0 विजय निकोर जी सादर अभिवादन। बेहतरीन सृजन। पढ़ते पढ़ते कब खत्म हो गया, पता ही नहीं चला। सच है इंसान प्रकृतिसे बहुत कुछ सीख सकता है। आपको कोटिश बधाई।
आ. भाई विजय निकोर जी, सादर अभिवादन । भावविभोर करती इस उत्तम रचना के लिए बहुत बहुत बधाई।
//मेरे भाई, आप आए , मैं कुछ ऐसे भावुक हुआ कि नयन भीग गए//
ये अल्लाह का ख़ास फ़ज़्ल-ओ-करम और आपकी दुआएँ हैं,आपके स्नेह का मुझे दिल से अहसास है,अल्लाह से दुआ है कि वो आपको और आपके परिवार को सलामत रखे और हमें इस वबा से जल्द निजात आता फ़रमाए ।
मेरे भाई, आप आए , मैं कुछ ऐसे भावुक हुआ कि नयन भीग गए। आपने रचना को सराहा, आपका हार्दिक आभार, भाई समर कबीर जी।
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब, हमेशा की तरह एक उत्तम रचना से रूबरू कराया आपने मंच को,इस बहतरीन प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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