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लोरी सुना सुलाती रातें कहाँ गयीं अब
बचपन में चहचहाती सुब्हें कहाँ गयीं अब।१।
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दिनभर का खेलना वो हर भूख भूलकर नित
मस्ती भरी गजब की शामें कहाँ गयीं अब।२।
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हर छलकपट से बंचित लड़ना झगड़ना लेकिन
मन से निकलती सच्ची बातें कहाँ गयीं अब।३।
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जिनपर थी झुर्रियाँ ढब हरपल थी कँपकपाती
रखती थी किन्तु थामे बाहें कहाँ गयीं अब।४।
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वो होंट खिल-खिलाते मुरझा गये हैं क्योंकर
वो दिल में खुबने वाली आँखें कहाँ गयीं अब।५।
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देखो जहाँ भी दिखती तन्हाइयाँ उधर ही
जो कारवाँ भरी थी राहें कहाँ गयीं अब।६।
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(५फरवरी२० १९)
मौलिक.अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई सुरेंद्र नाथ जी, सादर अभिवादन । गजल पर आपकी उपस्थिति से उत्साहवर्धन हुआ । उपस्थिति के लिए आभार ।
आद0 लक्ष्मण धामी मुसाफिर जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल कही आपने। बधाई स्वीकार कीजिये
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'जी। बेहतरीन गज़ल।
देखो जहाँ भी दिखती तन्हाइयाँ उधर ही
जो कारवाँ भरी थी राहें कहाँ गयीं अब।।
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