2212/ 1211/ 2212/ 12
चेहरा छुपा लिया है सभी ने नका़ब में,
परदा नशीं बने हैं सभी इस अ़ज़ाब में।
आक़ा हो या अ़वाम सभी फ़िक्रमन्द हैं,
अब घिर चुकी है पूरी जमाअ़त इताब में।
फ़ाक़ाकशी न कर दे कहीं ज़िन्दगी फ़ना,
सब लोग मुब्तिला हैं इसी इज़्तिराब में।
करता रहा ग़रूर सदा जिस ग़िना पे तू ,
क़ुदरत न कुछ है आज तेरे इस निसाब में।
क्या ये अ़ज़ाब है या कोई इम्तिहान है ?,
ये बेकली सी क्यूं है दिले तंग-ताब में।
पहचान भी न होती है अब तो लिबास से,
कैसे करोगे साहिबो इस इंक़लाब में।
पर्दे के थे ख़िलाफ़ जो कल तक 'अमीर' वो,
कोविड के डर से आज हैं लिपटे हिजाब में।
" मौलिक व अप्रकाशित "
Comment
आदरणीय रवि भसीन 'शाहिद' साहिब, आदाब। ख़ाक़सार की ग़ज़ल पर आपकी आमद से दिली मसर्रत हासिल हुई, और चाहता हूँ ये हमेशा होती रहे। आपसे इल्तिजा है कि मुझ से गुफ़्तगू करते वक़्त जसारत जैसे लफ़्ज़ इस्तेमाल कर मुझे शर्मिंदा न किया करें। मेरी इस्लाह करने वाले सभी दोस्त और उस्ताद ए मुहतरम मेरे मोहसिन हैं, और मेरे लिये आप सभी का मक़ाम सर-बुलन्द रहेगा। मज़ीद ये कि मेरी इस तख़्लीक़ पर हौसला अफ़ज़ाई और इस्लाह के लिये मैं आपका न सिर्फ शुक्र-गुज़ार हूँ बल्कि आपके ज़्यादातर सुझावों से सहमत हूँ और जल्द ही सुधार करने का प्रयास करूँगा। सादर।
आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' साहिब, ग़ालिब साहिब की ज़मीन में इस लाजवाब ग़ज़ल पर दाद और बधाई स्वीकार करें। आपके अशआर दौर-ए-हाज़िर की हक़ीक़त बयान कर रहे हैं। आदरणीय, अगर आप बह्र लिख दें तो सीखने वालों को आसानी होगी। कुछ छोटे छोटे सुझाव देने की जसारत कर रहा हूँ:
/आक़ा हो या अ़वाम सभी फ़िक्रमन्द हैं,
हाँ घिर चुकी है पूरी जमाअ़त इताब में/
इस शे'र के सानी में 'हाँ' के स्थान पर 'अब' या 'यूँ' इस्तेमाल करने पर सोचा जा सकता है।
/फ़ाक़ाकशी न कर दे कहीं ज़िन्दगी फ़ना,
सौ ज़ख़्म खा रहे हैं सभी इज़्तिराब में/
मिस्रों में रब्त बढ़ाने के लिए सानी को कुछ यूँ कहने पे सोच सकते हैं:
2212 / 1211 / 2212 / 12
सब लोग मुब्तिला हैं इसी इज़्तिराब में
/करता रहा ग़रूर सदा जिस ग़िना पे तू ,
क़ुदरत न आज कुछ है तेरे इस निसाब में/
इस शे'र के सानी मिस्रे का शिल्प इस तरह सुधारा जा सकता है, अगर इससे भाव नहीं बदल रहा तो:
क़ुदरत नहीं है आज तेरे इस निसाब में
/पहचान भी न होती है अब तो लिबास से
कैसे करेंगे साहिब इस इंक़लाब में/
इस शेर के सानी में 'साहिब' के स्थान पर 'साहिबो' कहने से ये बह्र में आ जाएगा।
मक़्ता लाजवाब है! सादर
जनाब रूपम कुमार जी, आपकी टिप्पणी देख नहीं पाया था, इसका खेद है।
ग़ज़ल पर आपकी पहुंच और हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे-दिल से शुक्रिय:।
मुहतरम जनाब तेजवीर सिंह जी, आदाब।
नाचीज़ की ग़ज़ल पर हाज़िरी और हौसला अफ़ज़ाई के लिए
तहे-दिल से शुक्रिया।
हार्दिक बधाई आदरणीय अमीरुद्दीन खा़न "अमीर " जी। बेहतरीन गज़ल।
करता रहा ग़रूर सदा जिस ग़िना पे तू ,
क़ुदरत न आज कुछ है तेरे इस निसाब में।
पर्दे के थे ख़िलाफ़ जो कल तक 'अमीर' वो,
कोविड के डर से आज हैं लिपटे हिजाब में।
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