रौशनी दिल में नहीं हो तो ख़तर बनता है,
आग सीने में लगी हो तो शरर बनता है।
जिसको ढाला न गया हो किसी भी साँचे में,
इब्ने आदम यूं ही हरगिज़ न बशर बनता है।
टूट जाते हैं कई रिश्ते ग़लत फ़हमी से,
रंजिशें ख़ुद ही भुला दे जो, बशर बनता है।
बात जो निकली ज़बां से न वो फिर रुकती है,
राज़ हो जाए अ़यां गर, तो ज़ह'र बनता है।
अदबियत जिसको विरासत में ही मिल जाती हो,
तब कहीं जा के 'अ़ली' कोई 'जिगर' बनता है।
हस्बे फ़ितरत ही वो पहचान लिया जाता है,
कोई बुज़दिल जो कभी सीना सिपर बनता है।
ज़िन्दगी लग'ती है सीपी को गुहर होने में,
एक दिन में कहां अन्दाज़ ए नज़र बनता है।
' मौलिक व अप्रकाशित'
Comment
ब हुज़ूर जनाब कबीर उस्ताद ए मुहतरम आदाब, शुक्रगुजा़र हूँ आपका कि आपने अहक़र की तस्नीफ़ पर रौशनी डालने और रहबरी करने के लिए अपने बेशकी़मती वक़्त का एक बड़ा हिस्सा ख़र्च किया है। आपसे रहबरी और इस्लाह मिलना मेरे लिए किसी तोहफ़े से कम नहीं है। जनाब रवि भसीन जी और आपके सुझावों और नसीहतों से फैज़ लेकर अपनी रचनाओं को बेहतर करने के लिए कोशां रहूँगा। आपके और रवि भसीन जी के तक़रीबन सभी कमेंट क़ुबूल हैं ।सादर।
जनाब अमीरुद्दीन जी आदाब,ओबीओ के तरही मिसरे पर ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है,लेकिन ग़ज़ल अभी समय चाहती है,रवि भसीन जी ग़ज़ल की त्रुटियाँ बता ही चुके हैं ,संज्ञान लें ।
'आग सीने में लगी हो तो ज़रर बनता है'
इस मिसरे में क़ाफ़िया रदीफ़ से इंसाफ़ नहीं कर रहा है, 'ज़रर' का अर्थ होता है,नुक़सान, ख़सारा,दर्द,तकलीफ़, और ये सब चीजें होती हैं,बनती नहीं,ग़ौर करें ।
'रंजिशें भूल ही जाए जो, बशर बनता है'
इस मिसरे में भी रदीफ़ से इंसाफ़ नहीं हुआ,यहाँ भी रदीफ़ 'होता है' हो रही है,ग़ौर करें ।
'राज़ हो जाए अ़यां गर, तो ज़हर बनता है'
इस मिसरे में क़ाफ़िया ग़लत है,सहीह शब्द है "ज़ह्र",देखियेगा
'अदबियत जिसको विरासत मेहि मिल जाती हो,
बस कोई ऐसे नहीं 'दाग़' ओ 'जिगर' बनता है'
इस शैर के ऊला में 'जिसको' एक वचन है,और सानी में 'दाग़-ओ-जिगर'बहुवचन, देखियेगा ।
'ह़स्बो फ़ितरत सेहि पहचान लिये जाते हैं,
रफ़्त: रफ़्ता ज कोई शोख़ नज़र बनता है'
इस शैर का भाव स्पष्ट नहीं हुआ ।
आदरणीय अमीरुद्दीन ख़ान 'अमीर' साहिब, मैं शुक्रगुज़ार हूँ कि आपने नाचीज़ की सलाह पर ग़ौर किया। मुहतरम, मैं आपसे भी छोटा तालिब-ए-इल्म हूँ। कोई जसारत हो गई हो तो माज़रत-ख़्वाह हूँ।
ब हुज़ूर आ़ली जनाब रवि भसीन 'शाहिद' साहिब आदाब। हक़ीर की ग़ज़ल पर आपकी पहुंच, इतना वक्त देने , तशरीह व तनक़ीद और दाद देने के लिये बेहद मशकूर व ममनून हूँ। अल्फाज़ की हिज्जे के बारे में आपके ज़रिये दी गयी जानकारी मेरे लिये बहुत अहम है। हस्बो फ़ितरत से मेरा तात्पर्य वंश और प्रकृति से है, छटे शेर में कहां को कहाँ करना दुरूस्त होगा। मैं शाइरी का
बहुत ही नया और छोटा तालिबे इल्म हूँ और आपके सभी सुझाव और आलोचनाएं एवं आपकी उपस्थिति सदैव मेरे लिये बड़ी
अहम रहेंगी। बेशक उस्तादे मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब की करीमाना नज़र पडे़ बग़ैर मेरी हर तस्नीफ़ अधूरी ही रहेगी।
हाँ मगर आपकी मनोरम उपस्थिति से मेरा बहुत उत्साहवर्धन हुआ है जिसके लिए साधुवाद स्वीकारें, सादर।
आदरणीय अमीरुद्दीन ख़ान 'अमीर' साहिब, बहुत ख़ूब ग़ज़ल कही आपने तरही मिस्रे पर, नाचीज़ आपको दाद और मुबारक़बाद पेश करता है।
मुहतरम आपने जो इन अल्फ़ाज़ के हिज्जे लिखे हैं:
व, मेहि, सेहि, ज, लग'ति
इन्हें ऐसे लिखना मुनासिब होगा:
वो, में ही, से ही, जो, लगती
जब आपके अश'आर की तक़ती'अ की जाएगी तो इन अल्फ़ाज़ को उस तरह से पढ़ा जाएगा जिस तरह आपने लिखा है, लेकिन हुज़ूर जब आप अपनी ग़ज़ल लिखित रूप में पेश करेंगे हैं तो उसमें साधारण हिज्जे ही लिखेंगे, जो आम लोग पढ़ सकें, और जिनमें से बहुत से ऐसे होंगे जिन्हें अरूज़ और तक़ती'अ की समझ नहीं होगी।
पाँचवें शे'र में 'ह़स्बो फ़ितरत' से शायद आपका तात्पर्य है 'हस्ब-ए-फ़ितरत' (फ़ितरत के अनुसार)। जनाब-ए-आली, देवनागरी लिपी में उर्दू लिखते समय 'ह' के नीचे तो नुक़्ता कभी भी नहीं आता है।
छटे शे'र में 'कहां' को 'कहाँ' लिखना उचित होगा।
आदरणीय, मैं भी शाइरी का तालिब-ए-इल्म ही हूँ और ये मेरी राय मात्र है, बाक़ी सौ फ़ीसदी मो'तबर इस्लाह तो उस्ताद-ए-मुहतरम समर कबीर साहिब की ही होगी। अगर आप को मेरे सुझाव लाभकारी लगें तो बेहद ख़ुशी होगी, अन्यथा इन्हें नज़र-अंदाज़ कर दीजियेगा। सादर
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