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शहर शर्म के चलते

कौन कहता  है कि

मन तभी  उदास होता है

वातावरण में जब उदासी  होती है  

इतिहास  तो चिल्लाता है 

कि वातावरण में  

तब उदासी   होती  है 

जब मन  मे काबा काशी होती है 

 

जब शहर शर्म के चलते

अचानक ही झुक से जाते हैं

पर्वत शिखर के  झरने  

अचानक  ही रुक से जाते है

देहात  की  सौगात 

चूड़ी चँदेरी  सजी हाट

जब वीरान होने लगती हैं

चलती बाट पग डंडी

शिखर  झूलती  झंडी 

जब  सुनसान होने  लगती है 

 

अस्पतालों मे गुब्बारे 

गुलदस्ते   छुहारे 

किलकारी नहीं  भर पाते  है  

स्कूल के बस्ते 

बिक जाते हैं सस्ते 

घरों  मे नहीं लौट पाते हैं 

 

गलियों के नंगे पाँव 

ढूंढते  फिरते  हैं  छांव 

धमाचौकड़ी  नहीं मचा पाते हैं  

जब  शवास  आवास के दाम

बढ़ जाते  हैं इतने  

कि पसीने  की  बदौलत  

चुकाए नहीं  जा   पाते हैं

 

जब  शंख अजान गरज गरज 

धमकाती  सी लगने  लगती है 

कोयल  की कूक  कुंठित 

सुबकुबाती  सी लगने लगती  है 

तब व्याकुल  हो जाता  है  वातावरण 

खोल देता है अपने वातायान

और तब कही जा कर उसे 

उदास उदासी  याद करने लगती है 

 

कौन कहता  है कि

मन तभी  उदास होता है

वातावरण में जब उदासी  होती है  

इतिहास  तो चिल्लाता है 

कि वातावरण में  

तब उदासी   होती  है 

जब मन  मे काबा काशी होती है 
......
मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by amita tiwari on May 4, 2020 at 8:03am

आ0 मुसाफिर जी 

आपके लगातार उत्साह वर्धन के लिए ह्रदय से आभारी हूँ 

सादर 

अमिता 

Comment by amita tiwari on May 4, 2020 at 8:01am

आदरणीय डा सिंह,सुरेन्द्र नाथ जी 

आपके प्रेरणादायक शब्दों से भावविभोर हूँ 

स्नेह बनाए रखिए 

Comment by डॉ छोटेलाल सिंह on May 3, 2020 at 7:27pm

आदरणीया अमिता तिवारी जी इस मार्मिक कविता की हम कितनी भी प्रशंसा करें कम है, मुझे रियली बहुत अच्छी कविता लगी,हार्दिक शुभकामनाएं

Comment by नाथ सोनांचली on May 2, 2020 at 6:48pm

आद0 अमिता तिवारी जी सादर अभिवादन।  बढ़िया सृजन है। तथ्यपरक बातों को आपने बेहतरीन ढंग से अल्फ़ाज़ में बाँधा है। बधाई स्वीकार कीजिये

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 2, 2020 at 11:55am

आ. अमिता जी, अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।

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