कौन कहता है कि
मन तभी उदास होता है
वातावरण में जब उदासी होती है
इतिहास तो चिल्लाता है
कि वातावरण में
तब उदासी होती है
जब मन मे काबा काशी होती है
जब शहर , शर्म के चलते
अचानक ही झुक से जाते हैं
पर्वत शिखर के झरने
अचानक ही रुक से जाते है
देहात की सौगात
चूड़ी चँदेरी सजी हाट
जब वीरान होने लगती हैं
चलती बाट पग डंडी
शिखर झूलती झंडी
जब सुनसान होने लगती है
अस्पतालों मे गुब्बारे
गुलदस्ते छुहारे
किलकारी नहीं भर पाते है
स्कूल के बस्ते
बिक जाते हैं सस्ते
घरों मे नहीं लौट पाते हैं
गलियों के नंगे पाँव
ढूंढते फिरते हैं छांव
धमाचौकड़ी नहीं मचा पाते हैं
जब शवास आवास के दाम
बढ़ जाते हैं इतने
कि पसीने की बदौलत
चुकाए नहीं जा पाते हैं
जब शंख अजान गरज गरज
धमकाती सी लगने लगती है
कोयल की कूक कुंठित
सुबकुबाती सी लगने लगती है
तब व्याकुल हो जाता है वातावरण
खोल देता है अपने वातायान
और तब कही जा कर उसे
कौन कहता है कि
मन तभी उदास होता है
वातावरण में जब उदासी होती है
इतिहास तो चिल्लाता है
कि वातावरण में
तब उदासी होती है
Comment
आ0 मुसाफिर जी
आपके लगातार उत्साह वर्धन के लिए ह्रदय से आभारी हूँ
सादर
अमिता
आदरणीय डा सिंह,सुरेन्द्र नाथ जी
आपके प्रेरणादायक शब्दों से भावविभोर हूँ
स्नेह बनाए रखिए
आदरणीया अमिता तिवारी जी इस मार्मिक कविता की हम कितनी भी प्रशंसा करें कम है, मुझे रियली बहुत अच्छी कविता लगी,हार्दिक शुभकामनाएं
आद0 अमिता तिवारी जी सादर अभिवादन। बढ़िया सृजन है। तथ्यपरक बातों को आपने बेहतरीन ढंग से अल्फ़ाज़ में बाँधा है। बधाई स्वीकार कीजिये
आ. अमिता जी, अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
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