ग़ज़ल:
आग कैसी जल रही है आजकल
क्या वबा ये पल रही है आजकल
हर ख़बर अब क़हर ही बरपा रही
पाँव बिन जो चल रही है आजकल
धैर्य का कब ख़त्म होगा इम्तिहाँ
हर चमक तो ढल रही है आजकल
हो रही है बेअसर हर घोषणा
योजना हर टल रही है आजकल
नफ़रतों की लहलहाती फ़स्ल ही
ज़ह्र बनकर फल रही है आजकल
हाल अपना मैं कभी कहता नहीं
ख़ामुशी पर खल रही है आजकल
फिर 'अमर' गहरा अँधेरा जायेगा
जोर से लौ बल रही है आजकल
*मौलिक व अप्रकाशित*
अमर पंकज
(डाँ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
Comment
आदरणीय अमर पंकज जी
शानदार रचना पोस्ट करने के लिए हार्दिक शुभकामनाएं स्वीकारें.
लगता है टाइप करते समय वबा की बजाय बवा टाइप हो गया है. सुधार कर लें।
सालिक गणवीर
आद0 पंकज जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल कही आपने। बधाई स्वीकारें। सादर
जनाब अमर पंकज जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
ग़ज़ल के साथ उसके अरकान भी लिख दिया करें,इससे नए सीखने वालों को आसानी होती है ।
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