2122 2122 2122
खुश हुआ तू बोलकर,' है जानवर तू'
लग रहा खुद को बताता,बेसबर तू।
सांस बनकर बह रहीं ठंडी हवाएं
आग की लपटें उठा मत बन, कहर तू।
ख्वाब पाले मौन बैठी हैं सदाएं
कानफाड़ू! ला सके तो,ला सहर तू?
तार होती हो नहीं उम्मीद कोई,
हो अगरचे तो बता,कोई पहर तू?
हर्फ हासिल हो गए तो शायरी कर,
क्यूं अंधेरों को बढ़ाता है बशर तू?
मत बिठा मेरी गजल को हाशिए पर
छटपटाती है बहर,देखे अगर तू।
रुक्न रोते, बुदबुदाते शब्द सारे,
नज़्म कहकर फेंकता कंकड़,मगर तू।
बंट सका पानी कभी क्या बावरी का?
प्रेम -धुन गाती लहर, बस मत मुकर तू।
तेल मिट्टी में मिला गढ्ढे बनाता,
बोलता मुंह फाड़कर,' इसमें उतर तू।'
जाल में खुद के फंसा बनकर मूषक क्यूं,
भाग ले बाहर जरा उसको कुतर तू।
" मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
जनाब मनन कुमार सिंह जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
मतले के सानी में क़ाफ़िया दोष है,सहीह शब्द है 'बेसब्र' ।
दूसरे शैर में भी क़ाफ़िया दोष है,सहीह शब्द है "क़ह्र" ।
'ख्वाब पाले चुप बैठी हैं सदाएं'
इस मिसरे की बह्र चेक कर लें ।
'छटपटाती है बहर,देखे अगर तू'
इस मिसरे में सहीह शब्द "बह्र" है ।
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